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३२२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १६ ।
८. शराब आदि नशीली वस्तुएँ बनाने का व्यवसाय (distillary) । (रसवाणिज्य)।
९. बाल (केश) अथवा केश वाले पशुओं का व्यापार, मेंढ़क, मछली, सांप आदि की खाले बेचना, निर्यात (Export) करना भी इसी में सम्मिलित है । (केश वाणिज्य) - १०. जहर (poison) तथा जहरीले केमिकल (chemical) आदि का व्यापार । (विष वाणिज्य)।
११. तेल मिल (Oil mills) आदि का व्यापार । (यंत्र-पीलन कर्म)। १२. जंगल आदि में आग लगाने का व्यापार । (दावाग्नि दापन कर्म)। १३. तालाब आदि को सुखाने का व्यवसाय । (सरोह्रद तडांग शोषणता
कर्म)
१४. प्राणियों के अवयव काटने, उन्हें नपुंसक बनाने का धन्धा । (निर्लाञ्छन कर्म)
१५. असामाजिक तत्वों को सरंक्षण देना, हिंसक पशुओं को पालना और उनसे धन्धा करना । (असीतजनपोषणता कर्म)
यह और आधुनिक युग में प्रचलित अन्य सभी ऐसे ही हिंसक व्यवसाय जैसे मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि भी कर्मादानों में समाविष्ट हैं ।
। तथ्य यह है कि उपभोग-परिभोगपरिमाणवत द्वारा व्रती श्रावक अपने उपभोग-परिभोग में आनेवाली वस्तुओं की सीमा निर्धारण के साथ-साथ हिंसक तथा समाज के लिए अहितकर व्यवसायों का भी त्याग कर देता है। वह अहिंसक ढंग से आजीविका का उपार्जन करता है । बौद्ध परम्परा में इसे सम्यग् आजीविका कहा है ।
(३) अनर्थदण्डविरमणव्रत - अग्निकाय, जलकाय आदि स्थावरजीवों की हिंसा तो गृहस्थ की विवशता है, भोजन आदि बनाने में हिंसा करनी ही पड़ती है, फिर भी इसमें वह विवेक रखता है, आवश्यकता से अधिक न पानी ही ढोलता है और न अधिक समय तक आग ही जलाता है; किन्तु व्यर्थ की हिंसा तो वह बिल्कुल भी नहीं करता है, जैसे उद्यान भ्रमण करते-करते एक फूल ही तोड़ लिया ।
आचार्य अभयदेव ने आवश्यक और व्यर्थ हिंसा का विवेचन इस प्रकार किया है -
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