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३३२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र २३
(४) अनंगक्रीड़ा - कामसेवन के अंगों के अतिरिक्त अंगों से काम का सेवन करना । इसमें काम संबंधी सभी विकृतियों का समावेश हो जाता है।
(५) तीव्रकामाभिलाषा - कामभोग में अतिशय आसक्ति रखना । बाजीकरण (आधुनिक युग में कामशक्ति बढ़ाने वाले विटामिन तथा औषधियों) का सेवन करके विभिन्न प्रकार से अत्यधिक लोलुप बनकर कामभोग करना आदि अथवा अपनी स्त्री में भी अधिक लुब्ध रहना ।
यहाँ जिज्ञासु के मन में कई शंकाएँ उभरती हैं, जैसे
(१) वेश्यागमन का त्याग तो सात व्यसनों में ही हो जाता है, ब्रह्मचर्याणुव्रत तो बहुत आगे की भूमिका है । तब अपरिगृहीतागमन, जिसमें वेश्या आदि का समावेश कर लिया गया है, इसको करने से सिर्फ अतिचार ही क्यों माना गया ? वेश्यागमन करने वाला तो मार्गानुसारी भी नहीं हो सकता, वह तो अच्छा नागरिक भी नहीं है, उसे तो नैतिक व्यक्ति भी नहीं कहा जा सकता ।
(२) यही बात परिगृहीतागमन के बारे में है । क्योंकि पर-स्त्रीसेवन का त्याग तो सप्त व्यसनों में ही हो जाता है ।
जब श्रावक स्वदारसन्तोषव्रत (श्राविका स्वपतिसन्तोष व्रत) अथवा ब्रह्माचर्याणुव्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है तब स्पष्ट बोलता है
___ "मैं पर-स्त्रीसेवन का त्याग करता हूँ और स्वस्त्री में भी सन्तोष की मर्यादा करता हूँ ।"
ऐसी ही प्रतिज्ञा स्त्री भी (पुरुष शब्द बोलकर) करती है ।
इस स्थिति में अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त संसार की सभी स्त्रियाँ पर-स्त्री होती हैं, चाहे वह विधवा हो, वेश्या हो, व्यभिचारिणी हो, कुमारी हो अथवा कोई भी क्यों न हो ।
इसी प्रकार की अन्य शंकाएँ भी प्रथम तीन अतिचारों के संबंध में जिज्ञासू मानव के अन्तर्हृदय में उठती रहती हैं । विभिन्न विद्वानों ने इन जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयास किया है ।
एक परंपरा के आचार्यों ने 'इत्वरपरिगृहीतागमन' तथा 'अपरिगृहीतागमन' में प्रयुक्त 'गमन' शब्द का अर्थ 'काम-सेवन' न करके 'आना-जानागमनागमन' किया है। तदनुसार ऐसा अर्थ बताया- वेश्या आदि तथा अन्य पुरुष की गृहीत (विवाहित) स्त्री के घर (विकारी भाव से) जाना-आना, उसके साथ मार्ग में गमन करना ।
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