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आचार-(विरति-संवर) ३३१ (४) हीनाधिकमानोन्मान - तौलने और नापने के पैमाने (तराजू, मीटर आदि) छोटे बड़े रखना, जिससे कम वस्तु ग्राहक को देकर उसे ठगा जा सके, अधिक लाभ कमाया जा सके ।
(५) प्रतिरूपक व्यवहार - अच्छी वस्तु में घटिया वस्तु मिला देना। यथा-पीतल पर सोने का मुलम्मा चढ़ा देना । दूध में पानी मिला देना आदि । आगम वचन -
सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-इत्तरिय परिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा परिविवाह करणे कामभोएसु तिव्वाभिलासो | .
- उपा. अ. १ (स्वदार संतोषव्रत (ब्रह्मचर्याणुव्रत-स्थूलमैथुनविरमणव्रत) के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं है । वे अतिचार यह हैं - १. इत्वरिक परिग्रहीता गमन, २. अपरिग्रहीतागमन, ३. अनंगक्रीड़ा, ४. परविवाहकरण ५. कामभोगतीव्रअभिलाषा । ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार
परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानंगक्रीडातीव्रकामाभिनिवेशाः ।२३।
१. परविवाह करना ,२ इत्वर परिगृहीतागमन, ३. अपरिगृहीतागमन, ४. अनंगक्रीड़ा और ५. काम का तीव्र अभिनिवेश - यह पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं ।
. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार बताये गये
(१) परिविवाहकरण - अपने पुत्र-पुत्रियों के अतिरिक्त कन्यादान के पुण्य की इच्छा से या स्नेहवश अन्य का विवाह करना, करवाना ।
(२) इत्वर परिगृहीतागमन - किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत (परिगृहीत) स्त्री के साथ अथवा अपनी छोटी ही अवस्था में विवाहित, गमन के अयोग्य स्त्री के साथ गमन करना, भोग करना ।
(३) अपरिगृहीतागमन - वेश्या, जिसका पति विदेश चला गया हो ऐसी वियोगिनी स्त्री, कुमारी कन्या, विधवा तथा जिसका कोई स्वामी न हो ऐसी स्त्रीआदि के साथ भोग करना ।
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