________________
आचार - (विरति - संवर)
समायरियव्वा तं जहा धणधन्नपरिमाणाइक्कमे खेत्तवत्थुपरिमाणाइक्कमें
·
हिरण्णसुवण्णपरिमाणाइक्क में कुवियपरिमाणाइक्क
।
( इच्छापरिमाण के पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं हैं; यथा – (१) धन-धान्यप्रमाणातिक्रम, (२) क्षेत्र - वास्तुप्रमाणातिक्रम, (३) हिरण्य - सुवर्णप्रमाणातिक्रम, (४) द्विपद-चतुष्पदप्रमाणातिक्रम, (५) कुप्यप्रमाणातिक्रम ।)
परिग्रहाणुव्रत के अतिचार
-
क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्ण धनधान्यदासीदासकु प्यप्रमाणाति
क्रमाः । २४ ।
१. क्षेत्र - वास्तु, २. सोना-चांदी, ३. धन-धान्य, ४. दासी - दास तथा ५. कुप्य का प्रमाण बढ़ा लेना, परिग्रहाणुव्रत के अतिचार है ।
(४) दासी - दासप्रमाणातिक्रम
को बढ़ा लेना ।
विवेचन बाह्य परिग्रह ९ प्रकार का है । परिग्रहाणुव्रत में साधक इस परिग्रह का परिमाण करता है। सूत्र में इस नौ प्रकार के परिग्रह के २२ के युगल बनाकर प्रस्तुत व्रत के पाँच अतिचार बताये गये हैं
(१) क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम क्षेत्र का अभिप्राय है खुली भूमि (खेत, बगीचा) और वास्तु का अभिप्राय वह भूमि जिस पर मकान आदि बना हो । इसे अंग्रेज में open area और covered area कहा जाता है । दोनों प्रकार की भूमियों की जितनी सीमा व्रत ग्रहण करते समय निश्चित की है, उसे बढ़ा लेना ।
I
(५) कुप्यप्रमाणातिक्रम
Jain Education International
दुप्पयचउप्पयपरिमाणाइक्क में उपासकदशांग, अ. १
-
-
(२) हिरण्य - सुवर्णप्रमाणातिक्रम
चाँदी (हिरण्य) सोना (सुवर्ण) का प्रमाण बढ़ा लेना, यानी ग्रहण की हुई मर्यादा का अतिक्रमण करना । - धान्यप्रमाणातिक्रम
(३) धन- १ धन (पशुधन), धान्य (अनाज) का प्रमाण बढ़ाना। धन का अभिप्राय आज के युग में नगद रुपया बैंक बैलेन्स शेयर आदि भी है ।
-
-
-
-
३३५
-
आगम में इसके लिए 'द्विपद- चतुष्पद' शब्द दिया गया है। इसका अर्थ बहुत विस्तृत है । द्विपद में दास-दासी तथा दो पैर वाले पक्षी (जैसे तोता मैना आदि) भी गर्भित है तथा चतुष्पद में घोड़ा, बैल, गाय, ऊँट आदि पशु
भी ।
नौकर चाकरों की निश्चित संख्या
For Personal & Private Use Only
बर्तनों आदि का प्रमाण बढ़ा लेना ।
www.jainelibrary.org