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३२० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १६ अधिक वस्तुओं का सेवन नही करूंगा । साथ ही अन्य सांसारिक प्रवृत्तियों को भी और अधिक अपने दिन भर के अथवा निश्चित काल के लिए सीमित कर लेता है । सावद्य प्रवृत्तियों के त्याग की अपेक्षा ही इसे देशसंवर कहा जाता है ।
इस परिभाषा के अनुसार 'देश' शब्द का अर्थ 'आंशिक' हो जाता है।
श्रावक के इन सात उत्तरव्रतों का हम भी गुणव्रत और शिक्षाव्रतों में विभाजन करके ही संक्षिप्त परिचय देंगे ।
गुणव्रत - यह तीन हैं १. दिग्वत २. उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत और ३. अनर्थदण्डविरमण व्रत । श्रावक इन व्रतों को जीवन भर के लिए ग्रहण करता
- (१) दिव्रत - इस व्रत में श्रावक ऊर्ध्व, (ऊँची), अधो (नीची) यानि भूमि से ऊपर आकाश में और पृथ्वी तल से नीचे-सागर, भूमिगृह, आदि में, तिर्यक् दिशा यानि पूर्व-पश्चिम उत्तर और दक्षिण (साथ ही आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान) इन सभी दिशाओं में अपने व्यापार आदि सावध कार्य हेतु जाने-आने की सीमा का निर्धारण कर लेता है । यथा अमुक दिशा में इतने कोस, मील, किलोमीटर आदि से अधिक गमनागमन नहीं करूंगा।
(२) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत - एक बार ही जिन पदार्थों का भोग किया जा सकता है व उपभोग कहलाते हैं; जैसे जल, अन्न आदि; और जिन वस्तुओं का बार-बार उपयोग किया जा सकता है, वे परिभोग कहलाते हैं; जैसे वस्त्र, मकान, शैया आदि । इस व्रत में व्रती गृहस्थ उप भोग-परिभोग की सभी वस्तुओं की अपनी आवश्यकतानुसार सीमा निश्चत कर लेता है । इसी को उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत कहा जाता है।
यह सीमा ऐसी होती है जिससे साधक को कष्ट या अभाव का अनुभव भी न हो और व्यर्थ की वस्तुओं का संचय भी न हो ।
साथ ही वह कर्मादानों का त्याग भी करता है ।
उपभोग-परिभोग की २६ वस्तुएं उपासकदशांग सूत्र में बताई गई है और कर्मादान १५ हैं ।
१. आवश्यक सूत्र की वृत्ति
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