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३१६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १३-१४-१५ हृदय में विषयों की अभिलाषा रहेगी और तब उसके व्रत सिर्फ बाहरी आडम्बर दिखावा मात्र ही रह जायेंगे ।
अतः इन तीनों प्रकार के शल्यों को निकाल कर व्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति ही यथार्थ व्रती (त्यागी) होता है । आगम वचन -
चरित्तधम्मे दुविहे पन्नत्ते, तं जहाआगार चरित्तधम्मे चेव अणगार चरित्तधम्मे चेव ।
- स्थानांग, स्थान २, उ. १ आगारधर्म .. .अणुव्वयाइ इत्यादि ...
- औपपातिक सूत्र श्री वीर देशना (चारित्रधर्म दो प्रकार का है, यथा (१) आगारचारित्रधर्म अथवा गृहस्थधर्म और (२) अनगारचारित्र धर्म अथवा मुनि धर्म ।।
अणुव्रत आदि धारण करना आगार चारित्रधर्म है । व्रती के भेद -
अगार्यनगराश्च ।१४। अणुव्रतोऽगारी ।१५। . (व्रती दो प्रकार के हैं - (१) अगारी और (२) अनगार अणुव्रतों को धारण करने वाला अगारी (गृहस्थ) व्रती है ।)
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र १४ में व्रती के दो प्रकार बताये गये है - (१) अगारी और (२) अनगार; तथा सूत्र १५ में अगार (गृहस्थ) व्रती का लक्षण बताया गया है कि अणुव्रतों का पालन करने वाला अगार व्रती होता है।
'अनगार' शब्द के दो अर्थ होते हैं - प्रथम, जिसका अपना कोई घर न हो अर्थात् वह अनिकेतचारी हो और दूसरा, जिसके व्रतों में किसी प्रकार का आगार, छूट अथवा Exception न हो ।
अनगार का सरल और बहुप्रचलित शब्द है श्रमण, साधु, निर्ग्रन्थ । इन्ही शब्दों से जन-मानस में अनगार व्रती की पहचान होती है ।
इन सर्वविरत -महाव्रती साधुओं के तीन भेद है - (१) आचार्य (२) उपाध्याय और (३) साधु । यह भेद संघ की व्यवस्था की अपेक्षा से है।
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