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आचार-(विरति-संवर) ३१५ मन-वचन-काय तीनों योगों की ऋजुता-सरलता सत्य के लिए अपेक्षित है।
इसी प्रकार मन-वचन-काय-तीनों योगों में चोरी का भाव न आना, तत्सम्बन्धी वचन न निकलना और शरीर-प्रवृत्ति न होना-अचौर्य है ।
यह स्थिति अब्रह्म के विषय में है । वहां तीनों योगों की वासनात्मक प्रवृत्ति न हो तभी ब्रह्मचर्य माना जायगा ।
और ममत्व/मूर्छा भाव का तीनों योगों में न आना अपरिग्रह है । आगम वचन -
पडि कमामि तिहिं सल्ले हिं - मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं मिच्छादसणं सल्लेणं । - आवश्यक. चतु. आवश्यक. सूत्र ७
(मैं तीन शल्यों का प्रतिक्रमण करता हूँ - (१) मायाशल्य का (२) निदानशल्य का और (३) मिथ्यादर्शनशल्य का । (इस प्रकार प्रतिक्रमण करना ही व्रती का लक्षण है ।) व्रती की अनिवार्य योग्यता
निःशल्योव्रती ।१३।। (ज्यो शल्यरहित है, वह व्रती है ।)
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में व्रती की अनिवार्य योग्यता की ओर संकेत किया गया है, वह योग्यता है निःशल्य अथवा शल्यरहित होना । इसका अभिप्राय यह है कि जो शल्यरहित होकर व्रत ग्रहण करता है, वही सच्चा व्रती है ।
शल्य, साधारण शब्दों में काँटे अथवा पीड़ाकारी वस्तु को कहा जाता है । इसका व्युत्पत्त्यर्थ है - श्रृणाति हिनस्ति इति शल्यम् । जिस प्रकार पाँव में लगा हुआं काँटा सुख-सुविधापूर्वक चरण नहीं रखने देता, चलने नहीं देता, इसी प्रकार मन में रहा हुआ शल्य व्रतों का सही ढंग से आचरण नहीं करने देता ।
शल्य एक मानसिक दोष है । यह तीन प्रकार का है - (१) माया, (२) निदान और (३) मिथ्यादर्शन ।
माया का अभिप्राय हैं ढोंग, कपट, वंचना; निदान विषय-भोगों की तीव्र लालसा है और मिथ्यादर्शन असत्य श्रद्धान है । इसको पलट कर यों भी कह सकते हैं, जिसे तत्व का सही विश्वास न होगा, उसके
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