________________
३०० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३
गुरु को दिखाकर, उनकी आज्ञा लेकर ग्रहण करना । (यदि व्रत - साधक ऐसा नहीं करता तो वह इसकी गुरू चोरी कहलाती है ।)
प्रश्नव्याकरण सूत्र में इन पाँच भावनाओं के यह नाम दिये हैं
(१) विविक्तवाससमिति भावना इसका अभिप्राय भी निरवद्य स्थान है, यद्यपि शब्दार्थ - एकान्तवास ध्वनित होता है; किन्तु वह एकान्त स्थान भी ऐसा होना चाहिए जहाँ साधना में किसी प्रकार का विघ्न न हो ।
-1
(२) अनुज्ञातसंस्तारकरूप अवग्रह समिति भावना 'सब कुछ याचना करके ।
(३) शय्यासमिति भावना
(४) अनुज्ञात भक्तादि भोजन भावना
(५) साधर्मिक विनयकरण भावना
आचारांग सूत्र के अनुसार ही तत्त्वार्थ सूत्र में पाँच भावनाएँ बताई गई हैं । किन्तु दिगम्बर परम्परा में अस्तेयव्रत की पाँच भावनाएँ दूसरे प्रकार से कही गई हैं
(१) शून्यागार (२) विमोचितावास
में रहना
-
पर्वत कन्दरा, आदि खाली स्थान को ग्रहण करना ।
दूसरों द्वारा ( त्यक्त ) छोड़े हुए मकान आदि
(३) परोपरोधाकरण
-
Jain Education International
-
--
रोकना ।
(४) भैक्ष्यशुद्धि - शास्त्रविहित भिक्षा की विधि में न्यूनाधिक नहीं करना
दूसरों को उस स्थान पर ठहरने से नहीं
(५) सधर्माऽविसंवाद साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना ।
अस्तेयव्रत की भावनाएँ, यद्यपि ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से गिनाई हैं, किन्तु सभी का मूल अभिप्राय यही है कि अचौर्यव्रत का साधक सब कुछ मांग कर ले, अपनी मर्यादा और कल्प के अनुसार परिमित मात्रा में ही ग्रहण करे और जो कुछ भी ( भोजन - पान आदि सभी कुछ) ग्रहण करे - उन सब को गुरु की आज्ञा से, उन्हें दिखाकर और उनकी अनुमति प्राप्त करके ग्रहण करे (खाए) ।
साथ ही वह सब, जो कुछ उसने ग्रहण किया है, उसकी आत्म
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org