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३०२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३
चारी को उस आकर्षण - दायरे से दूर रहना हितकारी है । प्रणीत आहार से विकारी हुआ पुरूष का चित्त उसकी ओर शीघ्रता और सरलता से खिंच जाता है, अतः ब्रह्मव्रत के साधक को गरिष्ठ आहार के त्याग के साथ-साथ अन्य चारों भावनाओं का भी अनुचिन्तन करते रहना चाहिए जिससे उसका ब्रह्मचर्य व्रत स्थिर एवं दृढ़ हो जाए ।
(य़) अपरिग्रह व्रत की पांच भावनाएं
(१-५) स्पर्शन-रसना-घ्राण - चक्षु श्रोत्र - इन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष की भावना न रखना ।
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यह तो संभव नहीं कि व्रती साधक को अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श न हों, मधुर और कटुक रस, सुगन्ध - दुर्गन्ध, बीभत्स और सुन्दर रूप तथा सुखद और कर्णकुट शब्दों का ग्रहण न हो; वह तो होगा ही लेकिन व्रती साधक को चाहिए कि उन में राग- - द्वेष न करे, अनुकूल के प्रति आकर्षित न हो और प्रतिकूल के प्रति मन में अरुचि न लाये ।
इन्द्रिय विषयों के प्रति समत्व भावना का बार-बार चिन्तन करता रहे।
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विशेष सामान्यतः पाँच व्रतों की इन पच्चीस भावनाओं को महाव्रतों की भावना को समझा जाता है । आगम ग्रन्थों में (यथा - आचारांग, प्रश्नव्याकरण आदि) भी ऐसा ही कथन है । क्योंकि आचारांग में इन भावनाओं का वर्णन महाव्रतों के सन्दर्भ में हुआ है । वहाँ पाठ हैं
" ततो णं समणे भगवं महावीरे उत्पन्ननाणदंसणधरे गोतमादीणं समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वयाइं सभावणाई छज्जीवणिकायाइं आइक्खति भासति परूवेति तं जहा- पुढविकाए जाव तसकाए । आचारांग, श्रु. २, अ. १५, सू. ७७६ (तत्पश्चात् केवलज्ञान-दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को (लक्ष्य करके) भावना सहित पाँच महाव्रतों और पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक छह जीवनिकायों के स्वरूप का सामान्यरूप से कथन किया, विशेष रूप से व्याख्या की और सिद्धान्त तथा तद्व्यतिरिक्त रूप से प्रतिपादन किया ।)
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यहाँ एक सामान्य जिज्ञासा उठती है कि इन भावनाओं का अनुचिन्तन सिर्फ महाव्रती श्रमण सन्तों को ही करना चाहिए, अणुव्रती साधकों को नहीं ? क्या अणुव्रती साधकों के लिए इनका विधान नहीं है ? अथवा
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