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आचार - (विरति - संवर)
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तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित एषणा समिति की बजाय आचारांग में वचन समिति बताई गई है ।
भावनाओं के नामों में यह अन्तर अपेक्षाभेद से है, यह अधिक महत्व का नहीं है ।
(ब) सयत्वत की पाँच भावनाएँ
(१) अनुवीचि भाषण - पापरहित और शास्त्र में बताई मर्यादा सहित विचारपूर्वक वचन बोलने की भावना रखना, अनुवीचि भाषण भावना है। ( २ - ५) क्रोध - लोभ-भय- हास्य-त्याग क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य, इन चारों के आवेग में मुख से कोई वचन न निकल जाये, ऐसा अनुचिन्तन मन में करते रहना ।
इन चारों का एक रूप है- क्षमा, निर्लोभता, अभय और वचन - संयम । व्रतों का आराधक साधक सदा ही इन क्षमा आदि गुणों का अनुचिंतन करके क्रोध आदि दुर्गुणों को निकाल फैकने के लिए प्रयत्नशील रहता है । यही उसकी सत्यव्रत ही स्थिरता हेतु पाँच भावनाएँ हैं ।
प्रश्नव्याकरण ओर आचारांग में भी सत्यव्रत की यही भावनाएँ बताई गई है ।
(स) अस्तेय (अचौर्य) व्रत की पांच भावनाए
(१) अनुवीचि अवग्रह याचना निर्दोष, अनिंद्य और हिंसा आदि से अनुत्पन्न तथा जिस स्थान में हिसा की संभावना न हो, सूक्ष्म जन्तुओं से रहित हो - अपने ठहरने के लिए, विश्राम के लिये ऐसा स्थान ग्रहण करने की भावना रखना |
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(२) अभीक्ष्णावग्रह याचना सदा ही निर्दोष, निरवद्य स्थान प्राप्त हो, इस प्रकार की भावना मन में रखना तथा अपने माँगने से उस स्थान या वस्तु के स्वामी को तनिक भी कष्ट न हो, इस बात का विचार रखना । (३) अवग्रहावधारण अपने अवग्रह ( कल्प या मर्यादा) के परिमाण के अनुसार ही ग्रहण करना ।
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(४) साधर्मिक अवग्रह याचना जिस स्थान पर अपना ही साधर्मिक पहले से ठहरा हो तो उससे उस स्थान की याचना करना । (५) अनुज्ञापित भोजन - पान विधिपूर्वक लाये हुए भोजन - पान को
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