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२९६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३
तथा उनके स्वरूप आदि का कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु स्वोपज्ञ भाष्य में आचार्य ने स्वयं इस कमी को पूरा कर दिया है ।
भावना का अभिप्राय आत्मा को प्रशस्त भावों से भावित करना है । जिस प्रकार शिलाजीत के साथ लोहे की भावना देकर उसे शुद्ध और शरीर हितकारी रसायन बना दिया जाता है, इसी प्रकार अहिंसादि व्रतों को भी इन भावनाओं द्वारा शुद्ध-विशुद्ध और आत्महितकारी रसायन बना दिया जाता है।
वस्तुतः भावना जाने हुए विषय पर बार-बार चिन्तनं करना है, यह चिन्तन मात्र शब्दों का पुनरावर्तन न होकर गहराई लिए हुए होता है। इन भावनाओं का उपयोग ही यह है कि यह अहिंसादि व्रत आत्मा की गहराई में पैठ जायें और हिंसा आदि विषय-विकार उसमें (आत्मा) से बाहर निकल जायें ।
आधुनिक परामनोवैज्ञानिक विज्ञान (Parapsychology) की यह मान्यता है कि हमारे मन के तीन भाग है- व्यक्त, अवचेतन और अधचेतन । व्यक्त मन तो प्रगट है ही किन्तु भावनाएँ, संवेग, पुरानी स्मृतियाँ आदि अवचेतनअधोचेतन मन में संग्रहीत रहती है । और यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि व्यक्त मन केवल ७% होता है जबकि अवचेतन - अधोचेतन मन ९३% ।
इसे आत्मा की दृष्टि से विचार करें तो हिंसादिक अव्रत भाव, जो अनादि काल से इस आत्मा के साथ संबद्ध हैं, आत्मा के अणु-अणु में प्रविष्ट हो गये हैं, वे भी व्यक्तरूप में बहुत ही कम मात्रा में हमारे प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं, उनका असीमित, अकल्पित भण्डार तो आत्मा में बहुत गहराई में भरा पड़ा है। उसे वैदिक भाषा में मनोमयकोष कहा जाता है ।
भावनाएँ यही काम करती है कि वे इस असीमित अव्रत भंडार की शुद्धिपरिशुद्धि करके वहाँ अहिंसादि व्रतों को प्रतिष्ठित कर देती है ।
प्रस्तुत विवेचन के प्रकाश में अब हम भावनाओं की परिभाषाओं में निहित अर्थ और उनके संकेत को समझने का प्रयास करें ।
आचार्य शीलांक ने 'भावश्चित्ताभिप्रायः (चित्त का अभिप्राय भाव है) कहकर भावना के अभिप्राय पक्ष की ओर संकेत किया है । अभिप्राय, वस्तुतः चित्त की बहुत ही अन्तर्निहित वृत्ति है, जिसका प्रगटीकरण उसके (मानव अथवा प्राणी के ) वचनों तथा काय - संकेतों द्वारा होता है।
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