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२९४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १-२
(महाव्रत) पाँच होते हैं सब प्रकार के प्राणातिपात - हिंसा से विरमण से (सब प्रकार के असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य से बचने से) लगाकर सब प्रकार के परिग्रह से विरमण तक । ____पंचाणुव्वता पण्णत्ता, तं जहा-थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं । थूलातों मुसावायातों वेरमणं । थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमणं । सदार संतोसे । इच्छापरिमाणे । स्थानांग स्थान ५, उ. १, सूत्र ८९
अणुव्रत पाँच होते हैं - (१) स्थूल प्राणिहिंसा से बचना (२) स्थूल असत्य-भाषण से बचना (३) स्थूल चोरी से बचना (४) स्वदार संतोष (५) इच्छा परिमाण । व्रतों के लक्षण और भेद -
हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्र तम् ।। देशसर्वतोऽणुमहती ।२।
(१) हिंसा (२) अनृत (असत्य) (३) स्तेय (चोरी) (४) अब्रह्म और (५) परिग्रह-इनसे विरत होना व्रत है ।
यह (विरति) दो प्रकार की है - अल्पतः- देशतः और सर्वतः ।
विवेचन - प्रस्तुत दोनों सूत्रों में विरतिरूप व्रतों के लक्षण और भेद बताये गये हैं ।
यहाँ विरति शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है (क्योंकि हिंसा आदि का लक्षण स्वयं आचार्य अगले सूत्रो में (८-१२ तक) में कह रहे हैं ।)
विरति का स्वरूप - अविरति आत्मा का अत्याग रूप परिणाम ह। इसमें आशा, इच्छा, वांछा, कामना आदि का सद्भाव रहता है । इन सभी का बुद्धिपूर्वक सोच-समझकर त्याग करना, प्रतिज्ञा ग्रहण करना विरति है । ___ यह विरति दो प्रकार की संभव है - (१) अंशरूप में (२) सर्वतः - पूर्णरुप में, पूरी तरह । सर्वतः विरति होना महाव्रत है और अंशतः विरति होना अणुव्रत ।
अणुव्रत अथवा अंशतः विरति में आत्मा की संसार, सांसारिक सुखभोग आदि की अनादिकालीन मूर्छा टूटती तो है; पर पूरी तरह नहीं टूटती, इसमें सांसारिकता के प्रति रागभाव का अंश काफी मात्रा में अवशेष रह जाता है।
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