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सातवाँ अध्याय आचार-(विरति-संवर)
(CONDUCT) उपोद्घात
पिछले (छठे) अध्याय में आस्रव तत्त्व का विवेचन किया जा चुका है । अब क्रम प्राप्त चौथा तत्त्व संवर है। प्रस्तुत सातवें अध्याय में इसी संवर तत्त्व का वर्णन है ।
प्रस्तुत सातवें अध्याय का प्रारम्भ व्रत से हुआ है । विरति भी एक संवर है और सम्यक्त्व संवर के पश्चात इसका क्रम है अर्थात सम्यक्त्व ग्रहण कर लेने के बाद जीव को आस्रवों से विरति होती है, वह व्रतों को धारण करता है । व्रत-धारण ही विरति संवर है । इस विरति संवर का ही प्रस्तुत अध्याय में वर्णन हुआ है ।
व्रतों का स्वरूप, उनकी भावनाएँ, मैत्री-प्रमोद आदि भावनाएँ, व्रतों के प्रकार और लक्षण, व्रती के लक्षण, आगारी और अनगारी व्रती में अन्तर आदि का सर्वांग वर्णन किया गया है ।
प्रस्तुत अध्याय में श्रावक-व्रतों का अतिचार सहित वर्णन है, यह इस अध्ययन की विशेषता है ।
अंत में दान का स्वरूप तथा उसके फल में विशेषता होने के कारण भी बताये गये हैं ।
प्रस्तुत अध्याय का प्रारम्भ व्रतों के लक्षण से होता है । आगम वचन -
पंच महव्वया पण्णत्ता, तं जहा-सव्वातो पाणातिवायाओं वेरमणं जाव सव्वातो परिग्गहातो वेरमणं ।
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