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आस्रव तत्त्व विचारणा २९१ आत्मा से अलग होते रहते हैं, जिन्हें आयु के निषेक झड़ना कहा जाता है। (४) इसके बाद जीव शरीरनाम कर्म (औदारिक आदि) रूप अवगाहना के पुद्गलों को बाँधता है । आयु भोगते समय बीमारी, वृद्धावस्था, युवावस्था आदि अनेक कारणों से इन पुदगलों मे चयापचय होता रहता है अर्थात् घटतेबढ़ते रहते हैं । (५) फिर प्रदेशनाम कर्म को आयुकर्म के निषकों के साथ सम्बद्ध करता है । इसका अभिप्राय यह है कि आयु को भोगते समय आयुकर्म का नामकर्म के साथ सम्बन्धित होकर प्रदेशोदय होता है । (६) अनुभाग निधत्तायु का अभिप्राय आयु का विपाकोदय में भोगना है। .
अनुभाग का अर्थ तीव्रमंद रस है । यदि आयुबन्ध के समय आत्मा के परिणाम मंद होते हैं तो अपर्वतनीय (बीच में ही टूटने योग्य शिथिल बन्ध वाली) आयु का बन्ध होता है और तीव्र परिणामों से अनपवर्तनीय (गाढ़ बन्धन वाली आयु जो बीच में नहीं टूटती ) आयु का बन्ध होता है ।
आयुबन्ध का समय - यह नियम है कि आयु का बन्ध वर्तमान आयु की त्रिभागी में यानि आयु के तीन भागों में से दो भाग आयु भोग ली जाय तब होता है ।
उदाहरण के लिए किसी मनुष्य की कुल आयु ८१ वर्ष है । तो आगामी जन्म की आयु का बन्ध (८१३२७४२=५४) ५४ वर्ष की आयु में प्रथम बार होगा । यदि किसी कारणवश उस समय न हो सका तो (८१:५४=२७-३४२=१८ वर्ष+५४ वर्ष) ७२ वर्ष की आयु में होगा ।
इसी तरह सात बार तक त्रिभागी में आयुबन्ध का समय आता है । यदि किसी कारणवश इन सब में भी आयु का बन्ध न हो सका तो इस जन्म में देह छूटने के अन्तर्मुहर्त से. एक आवलिका काल के अन्दर-अन्दर अवश्य ही परभव की आयु का बन्ध हो जायेगा ।
क्योंकि यह नियम है कि बिना परभव की आयु बाँधे यह जीव अपने वर्तमान शरीर को छोड़ ही नहीं सकता और साथ ही यह भी नियम है कि आयु समाप्त होने के बाद एक समय मात्र भी वर्तमान शरीर में रह नहीं सकता।
यह त्रिभागी में आयुबन्ध का नियम कर्मभूमिज संख्यात वर्ष की आयु वालों के लिए है । असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिज और देव,
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