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२९० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र २६
यह सभी कार्य अन्तरायकर्म के आस्रवद्वार अथवा बंध के कारण हैं ।
विशेष - प्रस्तुत अध्याय के ११ से २६ तक के १६ सूत्रों में आठों कर्मों के आस्रव के कारण बताये गये हैं । किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि यह तो उपलक्षण मात्र हैं, फिर सूत्र संक्षिप्त शैली का अनुसरण करता है, संकेत देता है, line demark करता है । और जीवन का आयाम (canvas) बहुत विस्तृत हैं, आस्रव के कारण भी असंख्यात-अनन्त हैं, अतः उन सबका भी सूचन इन सूत्रों से समझ लेना चाहिए ।
सात कर्मों का सतत बन्ध - जीव को आयु के अतिरिक्त सात कर्मों (१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) नाम (६) गोत्र और (७) अन्तराय का शुभ या अशुभ आस्रव और बन्ध सतत होता रहता है । एक क्षण को भी नहीं रुकता क्योंकि जीव की आन्तरिक प्रवृत्ति-योग-कषाय प्रवृत्ति जब तक निरूद्ध नहीं होती तब तक शुभाशुभ कर्मास्त्रव चालू ही रहता है । ___आयुकर्म का बंध अवश्य वर्तमान आयु की त्रिभागी में होता है । उसके बंध में कुछ विशेषताएँ हैं, वे भी समझ लेनी चाहिए ।
आयुबन्ध का अभिप्राय - आगामी भव में उत्पन्न होने के लिए जीव जब वर्तमान आयु में भावी आयु का बन्ध करता है तो उसी समय वह (१) गति (२) जाति (३) स्थिति (४) अवगाहना (५) प्रदेश और (६) अनुभाग - इन छह का बन्ध करता है । इसे कर्मशास्त्रों में गतिनाम, जातिनाम, स्थितिनाम, अवगाहनानाम, प्रदेशनाम और अनुभागनाम निधत्त आयु कहा गया
निधत्त का अभिप्राय है आयुकर्म के साथ-साथ भोगने योग्य होना ।
आयुबन्ध के समय सर्वप्रथम जीव (१) जाति (एकेन्द्रिय आदि) के नामकर्म के निषेकों को आयुकर्म के साथ सम्बद्ध करता है, यह जाति निधत्तायु है । फिर (२) गति (तिर्यंच आदि यदि पंचेन्द्रिय जाति के निषेकों को सम्बद्ध किया हो तो) नामकर्म के पुदगलों (निषेकों) को सम्बद्ध करता है (यहीं योनि (सर्प आदि) तथा लिंग (स्त्री-पुरुष-नपुंसक) का भी निश्चय हो जाता है) यही गति निधत्तायु है । (३) फिर स्थिति (काल-मर्यादावर्षों आदि के रूप में) का निश्चय होता है। यह स्थिति प्रदेश नामकर्म के पुद्गल है । अकाल मृत्यु के समय या क्षण-प्रतिक्षण यही नामकर्म के पुदगल
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