________________
आस्रव तत्त्व विचारणा २८९ इन कारणों में यह ध्वनित होता है कि जो व्यक्ति वास्तव में गुणी नहीं है, किन्तु अपनी गुण-हीनता को छिपाने और झूठा उत्कर्ष-बड़प्पन दिखाने का प्रयास करता है, वह दुनिया को धोका भले ही दे दे, किन्तु कर्म-सिद्धान्त को धोखा नहीं दे सकता, अपनी इन ढोंगी वृत्तियों के कारण वह परलोक में नीच गोत्र का ही भोग करता है । आगम वचन -
दाणंतराएणं लाभतराएणं भोगतंराएणं उवभोगतराएणं वीरियंतराएणं अंतराइयकम्मासरीप्पयोग बंधे ।
- भगवती श. ८, उ. ९, सूत्र ३५१ (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य में अन्तराय (विघ्न) करने से अन्तराय कर्म शरीर का प्रयोगबन्ध होता है ।) अन्तराय कर्म के आस्रवद्वार -
विघ्नकरणमन्तरायस्य ।२६। विध्न करना अन्तरायकर्म के आस्रव का कारण है ।
विवेचन -अन्तरायकर्म पाँच प्रकार का है अथवा इसकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ है - (१) दानानन्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय ।
यह प्रकृतियाँ दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय अथवा विघ्न डालने से बँधती हैं ।
जैसे किसी व्यक्ति को किसी प्रकार का लाभ हो रहा हो, उसमें विघ्न डाल देना, किसी साधु, या जरूरतमंद को कोई दाता दान दे रहा हो तो कह देना-'इस तरह कितनों को दान दोगे, भारत में करोड़ों की संख्या में जरूरतमन्द हैं और उसको दान पाने में बाधा पहुंचा देना ।
इसी तरह कोई व्यक्ति किसी वस्तु, वस्त्र आदि का भोग-उपभोग करना चाहता है तो उसमें अन्तराय डालना, उसे बलपूर्वक या छलपूर्वक विघ्न डालना भोगान्तराय है ।
यदि कोई व्यक्ति उत्साहपूर्वक धर्मध्यान कर रहा हो, अथवा समाज सेवा या किसी अन्य कार्य में उत्साह प्रगट कर रहा हो तो कह देना - 'कर लो समाजसेवा, पर अन्त में अपयश ही मिलेगा' । इस प्रकार उसके उत्साह को, वीर्यशक्ति को ठण्डा कर देना, निरुत्साहित कर देना ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org