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२८८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र २४-२५
(जाति मद से, कुल मद से, बल मद से यावत (से लगाकर) ऐश्वर्य मद से नीचगोत्रकर्म के शरीर का प्रयोग बन्ध होता है ।) .
(जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत (ज्ञान), लाभ और ऐश्वर्य इनका मद न करने से उच्चगोत्रकर्म के शरीर का प्रयोग बन्ध होता है ।) गोत्र कर्म के आस्रवद्वार -
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।२४। तविपर्ययो निचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्स ।२५॥
पर (दूसरे) की निन्दा करना और अपनी प्रशसा करना तथा दूसरे के विद्यमान गुणों को ढंकना और अपने अविद्यमान गुणों को प्रकाशित करनादूसरों के सामने प्रगट करना-यह नीचगोत्रकर्म के आस्त्रव हेतु है ।
नीचे गोत्र के आस्रव के विपरीत कारण और नीच वृत्ति तथा अनुत्सेक यह उच्चगोत्र कर्म के आस्रव हेतु है ।
विवेचन - दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा और दूसरों के गुणों को ढकना तथा अपने में जो गुण नहीं हैं उन्हें भी दिखाने का प्रयास करना - यह सभी अभिमानी व्यक्ति के कार्य हैं । यह सारे क्रियाकलाप ऐसे व्यक्तियो द्वारा किये जाते हैं जिनमें प्रतिष्ठा योग्य गुण होते नहीं, किन्तु समाज में अपनी प्रतिष्ठा चाहते ही हैं । ऐसे लोगों का खोखलापन इन क्रियाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता है ।
मद अथवा अभिमानमूलक होने के कारण ही ये सभी वृत्ति और प्रवृत्ति नीच गोत्र कर्म के आस्रव का कारण बनती है ।
निरभिमानिता तथा गुणों में बड़ों के सामने विनम्रवृत्ति (नीचैवृत्ति) और स्वयं अपने गुणों का अभिमान न करना, व्यर्थ ही उनका ढिंढोरा न पीटना (अनुत्सेक) - यह उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण है ।
इन सभी क्रियाकलापों के मूल में निरभिमानता है । निरभिमानता से ही व्यक्ति ऊँचा उठता है, जैसाकि एक दोहे से स्पष्ट है -
नर की और नल-नीर की गति एकै करि जोय । जै तो नीचौ है चले, ते तो ऊँचो होय । उच्च गोत्र कर्म भी आत्मा की प्रवृत्ति को ऊर्ध्वमुखी बनाता है ।
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