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आचार - (विरति - संवर)
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यदि मूर्च्छा न टूटे तो उसके त्यागरूप परिणाम होगे ही नहीं । अतः यह तो स्पष्ट है कि उसका रागभाव कम हुआ । जितने अंश में राग कम होता है, उतनी ही उसकी विरति होती है ।
उदाहरणार्थ दर्पण पर धूल जमी हुई थी, वायु के संयोग से कुछ अंश में धूल उड़ी, हटी तो उतने ही अंश में दर्पण की उज्ज्वलता दिखाई देने लगी ।
इसी प्रकार आत्मा की मोह-मूर्च्छा जितने अंश में टूटती है, उतने ही अंश में वह विरतिपूर्वक व्रत ग्रहण कर लेता है । यह अणुव्रत कहलाता है । और जब मोह-मूर्च्छा पूरी तरह टूट जाती है तो उसके अन्दर विरतिभाव पूरी तरह जाग उठता है, वह सभी प्रकार से सांसारिकता का, संसार के सुखों की आसक्ति का त्याग कर देता है । उसकी यह विरति महाव्रत कहलाती है ।
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महाव्रत ग्रहण करने वाला तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदन) और तीन योग (मन, वचन, काय) से व्रत ( हिंसादि सावद्य प्रवृत्ति का त्याग ) ग्रहण करता है ।
जबकि अणुव्रती श्रावक सामान्यतया तीन योग और दो करण (अनुमोदन को खुला रखकर ) व्रत ग्रहण करता है । अणुव्रती के भांगे आदि भी कई प्रकार के हैं । इनका विवेचन इन व्रतों के सन्दर्भ में अगले सूत्रों में किया जायेगा।
आगम वचन
पंच जामस्स पणवीसं भावणाओं पण्णत्ता ।
समवायांग, समवाय २५
(पांचो व्रतों की ( प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच के हिसाब से ) पच्चीस भावनाएँ कही गई है 1 )
व्रतों की स्थिरता के उपाय
भावनाएँ
तत्स्थैयार्थ भावना : पंच पंच | ३ |
(सूत्र १ में कहे गये पाँच व्रतों) उनकी पाँच-पाँच भावनाएँ है । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अहिंसादि पाँच व्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं का संकेत किया गया है, किन्तु मूल सूत्र में उन भावनाओं के नाम
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