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२८४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र २१-२२
और मनुष्यायु साथ ही स्त्री - वेद नपुंसक वेद, नीच गोत्र, भक्नपति, व्यंतर, ज्योतिष्क देवायु आदि प्रकृतियों के बन्ध को रोक देता है, तब वैमानिक देवायु ही शेष बचती है, अतः सम्यक्त्व के सद्भाव में वैमानिक देवायु का ही बन्ध हो सकता है । यदि आयु का बन्ध सम्यक्त्व - प्राप्ति से पहले ही हो चुका हो तो बात दूसरी है तब तो सम्यक्त्वी जीव को भी चारों गतियों में जाना ही पड़ता है । उदाहरणार्थ राजा श्रेणिक को नरक गति में जाना पड़ा ।
फिर भी इतना निश्चित है कि सम्यक्त्व आस्रव / बन्ध त्रिकाल में भी नहीं
है ।
आगम वचन
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सुभनामकम्मासरीर पुच्छा ?
गोयमा ! काय उज्जुयाए भावज्जुययाए भासुज्जुं ययाए अविसंवादजोगेणं सुभनामकम्मासरीर जाव प्पयोगबन्धे ।
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असुभनामकम्मासरीर पुच्छा ?,
गोयमा ! काय अणुज्जुययाए जाव विसंवायणाजोगेणं अशुभनाम कम्मा जाव पयोगबन्धे । भगवती, श. ८, उ. ९
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( प्रश्न - शुभनामकर्म का (शरीर ) बन्ध किस कारण प्राप्त होता है ? उत्तर - है गौतम! काय की सरलता से, भाव (मन) की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति न करने से शुभनामकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है ।
प्रश्न
उत्तर
अन्यथा प्रवृत्ति करने से अशुभनामकर्म का प्रयोग बन्ध होता है ।)
शुभ और अशुभ नामकर्म के आस्रवद्वार ( बन्धहेतु ) -
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न : ।२१।
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अशुभनामकर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध किस कारण होता है ?
(इसके विपरीत) काय, मन तथा वचन की कुटिलता से तथा
विपरीतं शुभस्य |२२|
योगों की कुटिलता और अन्यथा प्रवत्ति (के भाव) अशुभनामकर्म के आस्रव है ।
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