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२८२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १८-१९-२०
बिना किसी शील और व्रत (के भाव) सभी गतियों का बंधहेतु है ।
विवेचन - यहाँ सूत्र गत 'सर्वेषाम्' का अर्थ सभी गतियों अर्थात् चारों गतियों से है । किन्तु अपेक्षादृष्टि अपनाकर कुछ विद्वानों ने इसे पहले बताये गये नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति-इन तीन गतियों का हेतु माना है-अर्थात् बिना शील और व्रत वाले जीव नारक, पशु और मनुष्य इन तीन गतियों का ही बंध कर सकते हैं, देव गति का बंध नहीं कर सकते ।
किन्तु उद्धृत आगम वाक्य से स्पष्ट है कि एकान्त बाल (मिथ्यात्वी) भी चारों गतियों का बंध करते हैं । जब वहां सम्यक्त्व ही नहीं है तो शील
और व्रतों का प्रश्न ही नहीं उठता । .. भोगभूमि (युगलिया) के मनुष्य और तिर्यंच शील तथा व्रतों के बारे में जानते भी नहीं फिर भी वे नियम से देवगति का ही बंध करते हैं ।
सबसे बढ़कर बात यह है कि शास्त्रों में अनेक कथाएँ ऐसी मिलती है कि मिथ्यात्वी और जिन्होंने कभी किसी शील, व्रत, यम-नियम का पालन नहीं किया वे भी देव बने ।
अतः विस्तृत और सर्वांगपूर्ण दृष्टि से विचार करने पर यही परिणाम निकलता है कि शील और व्रत का पालन न करने वाले जीव सामान्यतः ही चारों गतियों का आयुष्य बांधते हैं ।
व्रत का प्रस्तुत सन्दर्भ में अभिप्राय है - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तथा शील का अभिप्राय है इन व्रतों को पुष्ट करने वाले गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत-दिव्रत, उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत, अनर्थ दण्डविरमणव्रत (गुणव्रत) तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास, अतिथिसंविभाग व्रत। आगम वचन -
चउहि ठाणे हिं जीवा देवाउयत्तए कम्मं पगरेंति, तं जहासरागसंजमेणं संजमासजमेणं बालतवोकम्मेणं अकामणिज्जराए ।
- स्थानांग स्थान ४, उ. ४., सू. ३७३ (चार प्रकार से जीव देवायु का बंध करते हैं - (१) सरागसंयम से, (२) संयमासंयम से, (३) बाल तप से और (४) अकामनिर्जरा से । देवायु के बंधहेतु - सरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ।२०।
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