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आस्रव तत्त्व विचारणा २८३ (१)सरागसंयम, (२) संयमासंयम, (३) अकाम निर्जरा और (४) बालतप-यह चार देवायु के आस्रवद्वार (बंधहेतु) है ।
विवेचन - यहां देवगति के चार बंधहेतु बताये गये है ।
सरागसंयम - संयम ग्रहण कर लेने पर जब तक राग का अंश शेष रहता है, तब तक वह संयम सरागसंयम कहलाता है ।
संयमासंयम- इसका अभिप्राय है-कुछ संयम और कुछ असंयम। सामान्यतः संयमासंयम गृहस्थधर्म है । इसमें त्रस-हिंसात्यागरूप संयम और स्थावर हिंसा को खुला रखना इस रूप में असंयम का आचरण होता हो।
अकाम निर्जरा - पराधीनता से कष्ट सहन करना, या मजबूरी से भूख आदि सहना । जैसे-पति के मर जाने या परदेश चले जाने पर स्त्री अपनी कामेच्छा को मारती है । इसी प्रकार भोजन न मिलने पर विवश व्यक्ति संतोष कर लेता है, आदि ।
बाल तप- 'बाल तप' को अज्ञान तप भी कहते हैं । जिस तपश्चरण या कायाकष्ट में आत्म-शुद्धि का लक्ष्य न रहकर अन्य कोई भौतिक लक्ष्य रहता है ।
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि सरागसंयम और संयमासंयम में तो 'सम्यक्त्व' गर्भित ही है, क्योंकि बिना सम्यक्त्व के तो यह हो ही नहीं सकते । किंतु अकाम निर्जरा व बाल तप में ऐसा नियम नहीं है ।
फिर भी दिगम्बर तत्त्वार्थ सूत्र में 'सम्यक्त्व' का अलग से एक सूत्र 'सम्यक्त्व च' निर्मित करके देवायुं के आस्रवद्वारों में गिनाया है । इसका कारण, उद्धृत आगम का आशय प्रतीत होता है; जिसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वी जीव आयुष्य पूर्ण करके देव बनते हैं, वैमानिक स्वर्गों में ही उत्पन्न होते हैं ।
जबकि कर्मसिद्धान्त और अध्यात्म विचारणा के अनुसार सम्यक्त्व तो आस्त्रव है ही नहीं; इसके द्वारा किसी भी कर्म का आस्त्रव/बन्ध होता ही नहों। यदि सम्यक्त्व भी आस्रवद्वार बन जाय तब तो जीव की मुक्ति ही असंभव हो जायेगी । सम्यक्त्व तो संवर है, मिथ्यात्वास्रव को रोक देता है, यही मुक्ति का मार्ग जीव के लिए प्रशस्त करता है और सिद्धात्मा में भी रहता है ।
हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यक्त्व का सद्भाव नरकायु, तिर्यचायु
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