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आस्रव तत्त्व विचारणा २८५ इसके विपरीत शुभनामकर्म के आस्रवद्वार है ।।
विवेचन - प्रस्तुत दोनों सूत्रों में शुभ और अशुभनामकर्म के आस्रवद्वार बताये गये हैं । सूत्र में अशुभनाम कर्म के आस्रवद्वार बताकर सूचन कर दिया गया है कि इसके (अशुभनामकर्म आस्रवद्वार) विपरीत शुभनाम कर्म के आस्रवद्वार है ।
अशुभनामकर्म के सूत्र में दो कारण बताये हैं - (१) योगवक्रता और (१) विसंवादन ।
__ योग - तीन हैं - मन वचन, काय । इनकी वक्रता अथवा कुटिलता का अभिप्राय है-मन में और, वचन में और तथा आचरण कुछ अन्य होना।
विसंवादन का अभिप्राय है - मत भेद पैदा करना, मित्रों में विग्रह पैदा करना, साधर्मिकों से झगड़ा फसाद लगाना, व्यर्थ का वाद-विवाद करना।
इनके विपरीत मन, वचन, काय-इन तीनों योगों की सरलता-यानी जो मन में हो, वही वचन से कहे और काय-चेष्टा से भी वैसा प्रकट करे तथा मतभेद-विग्रह-वादविवाद-झगड़ा आदि न करे ।
योगवक्रता और विसंवादन में अन्तर यह है कि - जब व्यक्ति अपने ही जीवन में अपने साथ मन, वचन, काय की कुटिलता करे तो वह योगवक्रता है और दूसरों के साथ कुटिलता आदि करना विसंवादन है । आगम वचन - .
अरहन्त-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं । वच्छलया य तेसिं अभिक्खणाणोवओगे य ॥१॥ दंसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं । खण लव तव च्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥२॥ अप्पुव्वणाणगहणे सुयभती पवयणो पभावणया । एएहिं कारणे हिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥
- ज्ञाताधर्मथा अ. ८, सूत्र ६४ ((१) अर्हत्भक्ति (२) सिद्धभक्ति (३) प्रवचनभक्ति (४) स्थविर (आचार्य) भक्ति (५) बहुश्रुतभक्ति (६) तपस्विवत्सलता (७) निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना (८) दर्शन को विशुद्ध रखना (९) विनय सहित होना (१०) आवश्यकों का पालन करना (११) अतिचाररहित शील और
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