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आस्रव तत्त्व विचारणा २७७ अवर्णवाद अथवा निन्दा व्यावहारिक जीवन में भी कटुफल प्रदान करती है, व्यक्ति अपमानित होता है, सभी उसे नीची नजर से देखते हैं ।
आध्यात्मिक दृष्टि से अवर्णवाद, चूंकि झूठ का पिटारा है, अतः वह आत्मा को इतना कलुषित बना देता है कि सत्य की ओर उसकी रुचि ही नहीं होती । उसकी आत्मा में झूठ और निन्दा की कालिख बहुत गहराई से जम जाती है, इसी कारण वह सत्य का - सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं कर पाती। आगम वचन -
मोहणिज्जनकम्मासरीप्पओग पुच्छा, गोयमा ! तिव्वकोहयाए तिव्वमाणयाए तिव्वमायाए तिव्वदंसणमोहणिज्जयाए तिव्वचारित्तमोहणिज्जाए । भगवती श. ८, उ. ९, सू. ३५१
(प्रश्न-(चारित्र) मोहनीय कर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध किस प्रकार होता है ?
उत्तर-गौतम! तीव्र क्रोध करने से, तीव्र मान करने से, तीव्र माया (कपट) करने से, तीव्र लोभ करने से, तीव्र दर्शनमोहनीय से और तीव्र चारित्र मोहनीय से ।) चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रवद्वार (बन्ध हेतु)
कषायोदयात्तीवात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य । १५। - कषाय के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र परिणाम चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रवद्वार (बंधहेतु) हैं ।
विवेचन - कषाय चार हैं - क्रोध, मान, माया, लोभ । इनके वशीभूत होकर जब आत्मा एकदम उद्वेलित हो उठता है, तब आत्मा के वे तीव्र (उत्कट) कलुषित भाव चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रवद्वार बन जाते हैं ।
चारित्रमोहनीय कर्म-संयम में बाधक है । नोकषाय मोहनीय के ९ भेद है । इनके बंध के कारण निम्न हैं -
(१) हास्य मोहनीय - त्यागी या सत्यव्रतियों का उपहास करना, दीन या निर्धन आदि का मजाक उड़ना, अथवा दूसरों को हंसाने के लिए विदूषकों (भांड़ों) जैसी चेष्टाएं करने से इसका बंध होता है ।
(२) विविध प्रकार की क्रीड़ाओं मे रस लेना, नीति एवं धर्मयुक्त विचारों से अप्रीति रखना, आदि कारणों से रति-मोहनीय का बंध होता है ।
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