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आस्रव तत्त्व विचारणा
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अत्याधिक आरंभ और परिग्रह (के भाव ) नरकगति नरक - आयुष्य के
बंध का हेतु (आस्रव द्वार) हैं ।
विशेष
सूत्र १६ से २० इन पाँच सूत्रों में एक बहुजिज्ञासित प्रश्न का समाधान प्रस्तुत हुआ है । प्राणी एक गति ( - भव) से दूसरी गति ( - भव) में जन्म लेता है, तो उसका कारण कर्म है यह तथ्य जानते हुए भी जिज्ञासा उठती है कि कौन - सा कर्म, कैसी क्रियाएँ, किस गति के बन्धहेतु ( - आस्रव) बनते हैं ? अर्थात् वे कौन कर्म से हैं, जिनके करने से प्राणी नरक की यातनाएँ भोगता है, तिर्यंच गति के दुःख झेलता है, या मनुष्य-देव गति में जन्म लेता है । सामान्यतः इन प्रश्नों का उत्तर प्रस्तुत सूत्रों में हैं ।
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विवेचन - यहाँ 'बहु' शब्द संख्यावाची भी है और परिमाणवाची भी; इसका अभिप्राय यह है कि आरंभ ( हिंसाजनक क्रियाकलाप) अधिक संख्या में तथा अधिक मात्रा में किया जाय तथा तीव्र क्रूर भावों के साथ किया जाय वह 'महा-आरंभ' है । इसी प्रकार महापरिग्रह भी समझना चाहिए ।
वास्तव में ‘मेरेपन' की भावना ही परिग्रह है । बाह्य वस्तुओं तथा अपने शरीर आदि पर जो ममत्व भाव होता है, वह परिग्रह ही है । इस ममत्व भाव की तीव्रता ही 'बहु' शब्द से प्रगट की गई है । विशाल संपत्ति होने मात्र से कोई बहु - परिग्रही नहीं होता किंतु परिग्रह के प्रति तीव्र ममत्व आसक्ति होने से प्राणी बहुपरिग्रही' होता है ।
इसके विपरीत कम हिंसा और कम ममत्व वाला जीव अल्पआरंभी और अल्प- परिग्रही होता है ।
सूत्र में आये हुए 'च' शब्द से यह द्योतित होता है कि पूर्व सूत्र 'कषायोदयात्तीव्रपरिणाम' की भी यहाँ योजना कर लेनी चाहिए । इसका अभिप्राय यह है कि तीव्र क्रोध - मान-माया - लोभ के अध्यवसायों सहित बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह नरकगति का आस्रवद्वार अथवा बन्धहेतु है ।
आरम्भ और परिग्रह के विषय में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना आवश्यक है । ऐसा भी संभव हो सकता है कि बाह्य दृष्टि से तो व्यक्ति बहुत परिग्रही दिखाई देता हो और वास्तव में वह अत्यन्त अल्प - परिग्रही हो ।
जैसे भरत चक्रवर्ती छह खण्ड के स्वामी थे, बाह्य दृष्टि से बहुत बड़े परिग्रही थे; किन्तु वास्तव में वे वह अत्यन्त अल्परिग्रही थे; तभी तो उन्होंने आशा भवन में केवलज्ञान का उपार्जन कर लिया था ।
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