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२७४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १२-१३ आगम वचन -
पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजन्ति ।
- भगवती, श. ७, उ.३, सूत्र २८६ ___ (हे गौतम ! प्राणियों पर अनुकंपा करने से, भूतों' पर अनुकंपा करने से, जीवों पर अनुकंपा करने से, सत्त्वों पर अनुकंपा करने से,. बहुत से प्राणियों को दुःख न देने से, शोक न कराने से, न झुराने से, न रुलाने से, न पीटने से, परिताप न देने से जीव सातावेदनीय कर्म का आस्रव करते हैं ।) सातावेदनीय कर्म के आस्रवद्वार (बंधहेतु)... भूतव्रत्यनुकंपा दानं सरागसंयमादियोग : क्षान्तिः शौचमितिसद्वेद्यस्य | १३।
(१) भूतअनुकंपा (२) व्रतीअनुकंपा (३) दान (४) सरागसंयम आदि योग (५) क्षमा (६) शौच-यह (भाव) सातावेदनीय कर्म के आस्रवद्वार (बन्ध हेतु) हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सातावेदनीय कर्म के बंधहेतुओं का निरूपण हुआ है । सातावेदनीय आत्मा (संसारी आत्मा) के लिए सुखदायी है । यह सुख-सामग्री का योग मिलाता है और सुखद परिस्थितियों का निर्माण करता है । इष्टसंयोग और अनिष्टवियोग आदि सभी सांसारिक सुख इसी कर्म के प्रभाव से जीव को प्राप्त होते हैं । सातावेदनीय कर्म उपार्जन के हेतुओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है ।।
(१) भूत अनुकंपा - चारों गतियों के सभी जीव यानी जीव मात्र पर करुणा बुद्धि से दया रखना । इसे सामान्यतः जीव दया कहा जाता है ।
(२) व्रती अनुकंपा - व्रत-नियम आदि जिन लोगों ने ग्रहण कर लिए हैं, इनके प्रति दया के भाव रखना। किन्तु यहाँ दया में पूज्यभाव, श्रद्धा निहित है । सर्वव्रती साधु और देशव्रती श्रावकों को सहयोग देना जिससे वे
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१. प्राणी - दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय वाले जीव, भूत
वनस्पति-कायिक जीव, जीव पाँचों इन्द्रिय वाले जीव और सत्त्व= पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीव कहलाते हैं ।)
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