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२७० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १०
(ख) भक्तपान संयोजना - भोजन के पदार्थों का एक-दूसरे में मिलाना, जैसे-दूध में चीनी मिला देना । इससे स्वाद बढ़ जाता है ।
(४) निसर्गाधिकरण - निसर्ग स्वभाव को कहते हैं । मन-वचन-काय की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, वह निसर्ग है । इसके विपरीत इन तीनों को दूषित रूप से प्रवर्ताना निसर्गाधिकरण है । इसके तीन भेद हैं. (क) मनोनिसर्गाधिकरण - मन में दूषित विचार करना ।
(ख) वाग्निसर्गाधिकरण - दुष्ट, कटु, हीलित वचन बोलना ।
(ग) कायनिसर्गाधिकरण - इस प्रकार की विकृत शारीरिक चेष्टाएँ करना, शरीर को हिलाना चलाना जिससे हिंसा आदि पापों का अधिक संभावना हो ।
. द्रव्य और भाव अधिकरण - वस्तुस्थिति यह है कि अकेला जीव ही आस्रव नहीं कर सकता है और अजीव के तो आस्रव का प्रश्न ही नहीं है । जीव और अजीव दोनो ही संयुक्त होकर आस्रव के अधिकरण बनते ह। भेद अपेक्षा से जीवाधिकरण को भावाधिकरण और अजीवाधिकरण को द्रव्य अधिकरण की संज्ञा दी जा सकती है ।
इन दोनों अधिकरणों के भी पुनः द्रव्य और भाव से दो-दो भेद किये जा सकते हैं । जीव के स्वयं के रागद्वेषरूप परिणाम भावाधिकरण है और उन परिणामों की ओर प्रवृत्ति-रूचि द्रव्य अधिकरण की जा सकती है ।
_अजीव अधिकरण की स्वयं की अपनी नैसर्गिक शक्ति, परिणमना, आकार, तीक्ष्णता, आदि उसका भाव अधिकरण है और वह स्वयं तो द्रव्य अधिकरण है ही । जैसे सूखने को डाले हुए गीले वस्त्र-पात्र आदि पर कोई सूक्ष्म जीव उड़कर गिर जाय, पीड़ित हो अथवा मर ही जाय तो यह भाव अधिकरण है और वह वस्त्र पात्र आदि साधु की असावधानी अथवा शीघ्रता से अथवा वायु आदि के प्रबल वेग से गिर जाय तथा वहाँ भूमि पर रेंगने वाले किसी सूक्ष्म जन्तु का प्राणव्यपरोपण हो तो वह वस्त्रपात्र आदि का द्रव्य अधिकरण है । आगम वचन- णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं!
गोयमा ! नाणपडि णीययाए णाण निण्हवणयाए णाणंतराए णाणप्पदोसेणं णाणचासायणाए णाणविसंवादणाजोगेणं .. एवं जहा णाणावरणिज्नं नवरं दंसणनाम घेत्तव्वं ।
- भगवती, श. ८, उ. ९, सू. ७५-७६
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