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२४४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र २९-३०-३१
सत् का लक्षण - 'सत्' शब्द का सीधा सा अर्थ है । अस्तित्व (Beingness) सत्ता, मौजूदगी, अवस्थिति ।
यहाँ सत् का लक्षण बताया गया है जिसमें उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता- तीनों गुण हों, वही सत् है । आगम वाक्य 'उप्पानेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा का प्रस्तुत सूत्र संस्कृत रूपान्तर जैसा है । । - परम्परा में प्रसिद्ध है कि भगवान महावीर ने यही त्रिपदी गौतम गणधर को दी थी, जिससे वे सत् (तत्त्व) को भली-भाँति समझ गये थे ।
'सत्' शब्द भारत के सभी दर्शनों में प्रचलित है किन्तु सभी दर्शनकारों ने इसे भिन्न-भिन्न अर्थ में ग्रहण किया है ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों. को कूटस्थ-नित्य और घट-पट आदि को अनित्य कहता है (सांख्यदर्शन की मान्यता आत्मा के बारे में कूटस्थनित्य की है और प्रकृति के विषय में नित्यानित्य की ।
कूटस्थ का अभिप्राय है परिणमनहीनता-ध्रुवता ।
औपनिषिदक शांकर मत वेदान्त सिर्फ ब्रह्म को ही नित्य स्वीकार करता है। उसका स्पष्ट आघोष है - ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या । बौद्ध दार्शनिक क्षणिकवादी है । उनका नित्यत्व केवल धाराक्रम अथवा संततिक्रम है ।।
__किन्तु जैन दर्शन की मान्यता इन सबसे भिन्न है । वह स्त को परिणामी नित्य मानता है । परिणामी नित्य का अभिप्राय है - परिनमन होते हुए-पर्यायों के पलटते रहने पर भी वस्तु नित्य है, ध्रुव है ।
__ इसके लिए उदाहरण दिया गया है - जैसे सोने के कुण्डल तुड़वाकर हार बनवाया जाना। कुण्डल रूप पर्याय का विनाश और हार पर्याय का उत्पाद होते हुए भी सोने की अपेक्षा सोना नित्य है, ध्रुव है ।
इस प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की प्रक्रिया वस्तु अथवा द्रव्य में निरंतर प्रति समय चलती रहती है । और वही सत् है ।
तद्भाव का अभिप्राय - 'यह वही है, जो पहले था' इस प्रकार की अनुभूति अथवा प्रतिबोध होना तदभाव है । इसे साधारण और बहुप्रचलित शब्द 'स्वभाव' द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है ।
तद्भाव अथवा स्वभाव सदा ध्रुव रहता है, उसका कभी नाश नहीं होता, वह अव्यय है, स्थिर है, सदाकाल रहने वाला है ।।
__ पर्यायों के उत्पत्ति - विनाश होते रहने-पलटते रहने पर भी जो द्रव्य
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