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आस तत्त्व विचारणा
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वह (योग) कषायसहित और कषायरहित होता है तथा कषाय सहित सांपरायिक है और कषाय रहित ईर्यापथिक कहा जाता है ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में 'कषाय' शब्द महत्तवपूर्ण है । 'कषाय' शब्द का निर्वचन विभिन्न आचार्यों ने कोई प्रकार से किया है । इनमें से दो प्रमुख हैं
प्रथम है 'कषति इति कषायः ।' जो आत्मा को कसे, उसके गुणों का घात करे, वह कषाय है । और दूसरा है - 'कर्षति इति कषायः' अर्थात् जो संसार रुपी कृषि को बढ़ाये, जन्म-मरण की, नाना दुःखों की, चारों गतियों में भ्रमण की फसल को बढ़ाये, आत्मा को संसार के बन्धनों में जकड़े रखे, वह कषाय है ।
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'कषाय' गेरुआ रंग को भी कहते हैं अध्यात्म की भाषा में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आवेगों से युक्त मन की स्थिती, वृत्ति को 'कषाय' कहा गया है ।
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कषयों सहित जो जीव हैं उनका आस्त्रव सांपरायिक आस्त्रव कहलाता है अर्थात् उनके मन-वचन-काय योगों की क्रियाएँ संसार बन्धन को बढ़ाने वाली, उस बन्धन को छढ़ करने वाली तथा आत्मा को पराजित करने वाली हैं ।
और ज़िन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतराग हैं उनकी गमनागमनादि (ईर्या) वाणी वगैरह सभी क्रियाएँ ईर्यापथिकी हैं । यह संसार को बढ़ाने वाली नहीं है ।
इस सूत्र का हार्द यह है की कषाययुक्त आत्मा मन-वचन-काययोग द्वारा जो कर्म बन्ध करती है वह कषाय की तीव्रता - मन्दता के अनुसार अधिक या अल्पस्थिति वाला होता है किन्तु कषाययुक्त आत्माएँ तीनों योग-प्रवृत्ति से जो कर्म बन्ध करती हैं, वह मात्र एक समय की स्थिती वाला- - ईर्यापथिक बन्ध होता है ।
आगम वचन
पण्णता........
पंचिन्दिया पण्णत्ता..... चत्तारि कसाया पण्णत्ता... . पंचविसा किरिया पण्णता...... ।
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- स्थानांग, स्थान २, उ०१, सूत्र ६० (इन्द्रियाँ पाँच होती हैं, कषाय चार हैं अविरति पाँच हैं और क्रियाएँ पच्चीस होती हैं (यह प्रथम सांपरायिक आस्त्रव के भेद हैं ।)
...... पंच अविरय
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