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आस तत्त्व विचारणा २६१ (१) सम्यक्त्व क्रिया- सम्यक्त्व का पोषण करने वाली क्रियाएँ । जैसे-देव-वन्दन, गरुवन्दन, जप आदि। इन धार्मिक/धर्म सम्बन्धी क्रियाओं से पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनमें रस पड़ता है । __(२) मिथ्यात्वक्रिया- मिथ्यात्तव को बढ़ाने वाली कुगुरु आदि की सेवा ।
(३) प्रयोगक्रिया- गमनागमन आदि कषाय भावयुक्त शारीरिक क्रियाएँ। (४) समादानक्रिया - त्याग-पथ अपनाने पर भी भोगों की आर रुचि। (५) ईर्यापथिकीक्रिया - कषाय विमुक्त वचन और काय की प्रवृत्ति। (६) कायिकी क्रिया - दुष्टभाव युक्त शारीरीक प्रयास अथवा चेष्टा ।
(७) आधिकरणिकीक्रि या- शस्त्रों आदि हिंसक साधनों को ग्रहण करना ।
(८) प्राद्वेषिकीक्रिया- यह क्रिया क्रोध के आवेश में होती है । (९) पारितापनिकीक्रिया- प्राणियों को पारिताप-संताप देने वाली ।
(१०)प्राणातिपातिकीक्रिया - हिंसा अर्थात प्राणियों के प्राणघात की क्रिया ।
(११) दर्शनक्रिया- रागयुक्त होकर रमणीय दृश्यों को देखने का भाव। (१२) स्पर्शनक्रिया- स्पर्शन योग्य वस्तु को स्पर्श करने की अभिलाषा।
(१३) प्रात्ययिकीक्रिया - प्राणिघात करने में सक्षम नये-नये उपकरणों के निर्माण अथवा उन्हें ग्रहण करने, खरीदने की चेष्टा अथवा प्रयास करना।
(१४) समंतानुपातनक्रिया - जहाँ स्त्री-पुरुष उठते-बैठते हों अथवा उनका निर्बाध गमनानुगमन होता हो, वहाँ मल-मूत्र त्यागना ।
(१५) अनाभोगक्रिया- बिना देखी तथा स्वच्छ की गई भूमि पर शरीर आदि रखना । ..
(१६) स्वहस्तक्रिया- जो क्रिया दूसरों के द्वारा की जाने योग्य हो, उसे स्वयं अपने हाथ से कर लेना ।
(१७) निसर्गक्रिया - दूसरों को पाप प्रवृत्ती के लिए उत्साहित करना अथवा आलस्य के कारण स्वयं प्रशस्त क्रिया न करना ।
(१८) विदारणक्रिया -किसी के द्वारा आचरित पाप को प्रगट कर
देना ।
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