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२६२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र ६
(१९) आनयनक्रिया- आवश्यक आदि के विषय में अरिहंत भगवान की जैसी आज्ञा है, उससे अन्यथा निरुपण करना ।
सर्वार्थसिद्धिकार ने इसका नाम 'आज्ञाव्यापादनिक क्रिया' दिया है ।
(२०) अनाकांक्षाक्रिया- आलस्य तथा धूर्तता अथवा मूर्खता के कारण आगमोक्त विधी में अनादर करना ।
(२१) आरम्भक्रिया-छेदन-भेदन आदि हिंसा क्रिया में स्वयं रत रहना और दूसरों की ऐसी क्रियाओं को देखकर हर्षित होना । ।
(२२) परिग्रहक्रिया- परिग्रह में ममत्वपूर्ण वृत्ति-प्रवृत्ति रखना । इसे विषय अथवा परिग्रह संरक्षिणि क्रिया भी कह सकते हैं ।
(२३) माया क्रिया- ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि में वंचना कपट करना इसके दो रुप होते हैं- प्रथम तो स्वयं अपने को ठगना, यानी कुज्ञान, कुदर्शन, कुचारित्र को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र समझना; और दुसरा ज्ञान-दर्शनचारित्र की साधना का दिखावा ढोंग करके अन्य भोले लोगों को ठगना।
(२४) मिथ्यादर्शनक्रिया - मिथ्यात्वी जीवों की मिथ्यात्व सम्बन्धी क्रियाओं की प्रशंसा करके उसे और बढ़ करना । जैसे-कोई व्यक्ति भैरो, भवानी, विश्वकर्मा आदि देवों की पूजा करता है तो यह कहना कि - यह शक्तिशाली और चमत्कारी देवी-देवता हैं, इनकी पूजा तुम करते हो, वह ठीक ही है आदि ।
(२५) अप्रत्याख्यानक्रिया- संयमघाती पापक्रियाओं का त्याग न करना । इन पच्चीस क्रियाओं में से केवल 'ईर्यापथिकी क्रिया' ही बन्ध का हेतु नहीं है शेष सभी क्रियाएँ कषाय की विद्यमानता के कारण सांपरायिक क्रियाएँ ही हैं।
उत्तराध्ययन (३१/१२) में भी तेरह क्रियास्थान बताये गये हैं और यही १३ क्रियास्थान सूत्रकृतांग (श्रु० २, अ० २) में बताये गये है; किन्तु वहाँ इन्हें 'दण्ड' शब्द से अभिहित किया गया है । वे तेरह स्थान यह हैं
(१) अर्थक्रिया (दण्ड)- प्रयोजन से होने वाला पापाचरण । (२) अनर्थक्रिया- बिन प्रयोजन किया जाने वाला पापाचरण ।
(३) अकस्मात् क्रिया - किसी को दण्ड देने की इच्छा हो और अचानक किसी अन्य को दण्ड मिल जाए । जैसे-चोरी की आदत को सुधारने के लिए पिता अपने पुत्र को थप्पड़ मारता हे तब अचानक ही माता उसे बचाने बीच में आ जाती है तो उसको चोट लग जाती है ।
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