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तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र ३-४-५
(४) लयनपुण्य पाट-पाटला आदि आसन देना । .. (५) वस्त्रपुण्य वस्त्र आदि देकर सर्दी-गर्मी से रक्षा करना । हृदय से सभी प्राणियों के सुख की भावना करना ।
(६) मनःपुण्य (७) वचनपुण्य (८) कायपुण्य शरीर से सेवा आदि शुभ कार्य करना ।
निर्दोष मधुर शब्दों से दूसरों को सुख पहुँचाना।
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(९) नमस्कार पुण्य
नम्रतायुक्त व्यवहार करना ।
ये सभी शुभ क्रियाएँ साधारण व्यक्ति, प्राणी मात्र के साथ की जाने पर तो साधारण पुण्य का उपार्जन कराती हैं और जब श्रमण - श्रमणी आदि उत्तम चारित्री के प्रति की जाती हैं तब विशेष पुण्य का बंध होता है ।
अशुभयोग १८ हैं, जिन्हें पापस्थानक भी कहते हैं
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(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादन, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाद, (१६) रति - अरति, (१७) मायामृषावाद और (१८) मिथ्यादर्शन शल्य । यह १८ अशुभयोग पाप के कारण हैं, इसलिए पाप हैं ।
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यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि योग स्वयं बंध नहीं करते, अपितु यह बंध के हेतु हैं निमित्त हैं, कारण हैं । वास्तव मैं 'बंध' जिसे कहा जाना चाहिए वह तो कषायों आदि से होता है ।
आगम वचन
जस्स णं को हमाणमायालोभा वोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जणइ नो संपराइया किरिया कज्जइ । जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं संपराइयकिरिया कज्जइ नो इरियावहिया ।
भगवति, श. ७, उ. १, सूत्र २६७ ( जिसके क्रोध - मान-माया - लोभ नष्ट हो जाते हैं उसके ईर्यापथिका क्रिया होती है, उसके साम्परायिक क्रिया नहीं होती ।
किन्तु जिसके क्रोध - मान-माया - लोभ नष्ट नहीं होते उसके साम्परायिक (आस्त्रव) होती है, क्रिया ईर्यापथिका नहीं क्रिया होती ।) क्रिया की अपेक्षा आस्त्रव के भेद
सकषायाकषाययोः साम्परायिके र्यापथयोः | ५ |
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