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अजीव तत्त्व वर्णन २४५ को उसके अपने निजी रूप में बनाये रखता है, वह तद्भाव अथवा स्वभाव है, वस्तु की ध्रुवता है और इस कारण सत् अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता। __ अर्पित-अनर्पित का अर्थ है मुख्य (primary) और गौण (secondary)
स्थिति यह है कि सत् अनन्तधर्मात्मक है । यदि उसका वर्णन किया जाए तो एक समय में किसी एक धर्म का गुण का, ही वर्णन संभव है । - इसका अभिप्राय यह नहीं कि वस्तु में अन्य गुण या धर्म हैं ही नहीं अथवा उनका निषेध किया जा रहा है, अपितु इसका अभिप्राय यह कि इस समय जिसका वर्णन किया जा रहा है, वह गुण प्रधान (मुख्य) हैं । और शेष समस्त गुण इस समय अप्रधान (गौण) हैं ।
इसे एक उदाहरण से समझे । किसी ने कहा- 'जैन संत पूर्ण अहिंसक होते हैं ' इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि गुणो का निषेध किया जा रहा है; अपितु इतना ही है कि इस समय कथन-कर्ता की दृष्टि में 'अहिंसक गुण' की प्रधानता है और शेष गुण उसकी दृष्टि में इस समय गौण हैं ।
वस्तुतः अर्पित और अनर्पित शब्द,जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त - स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, सप्तभंगी और नयनाद' की ओर संकेत करता है, उसके बीजरूप में यहाँ दिया गया है ।
सत् यानी वस्तु अथवा द्रव्य की सिद्धि अर्पित (मुख्यत्व) और अनर्पित (गौणत्व) के द्वारा ही संभव है । यह जैनदर्शन का मान्य सिद्धान्त है, और उसी का संकेत प्रस्तुत सूत्र में हुआ । आगम वचन -
बंधणपरिणामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाणिद्धबंधणपरिणामे, में लुक्खबंधणपरिणामे य । समणिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाएवि ण होति । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंदो उ खंधाणं ॥१॥ णिद्धस्स णिद्धेण दुयाहिए णं. लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धों, जहण्णवज्जो विसमो समो वा।२।
- प्रज्ञापना, परिणामपद १३, सूत्र १८५ १. स्यादाद, सप्तभंगी, नयवाद का विस्तृत वर्णन प्रथम अध्याय के अन्तिम सूत्र में किया जा चुका है । अतः यहां पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है ।
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