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अजीव तत्त्व वर्णन २२९ एक प्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । १४। असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।१५। प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ।१६ । (द्रव्यों का) अवगाह लोकाकाश में होता है । धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का अवगाह पूर्ण लोकांकाश में है ।
पुद्गल द्रव्यों का अवगाह (लोकाकाश के ) एक प्रदेश आदि में भाज्य (विकल्प) से है ।
जीव का अवगाह (लोकाकाश के समस्त प्रदेशों के) असंख्यातवें भाग में होता है ।
(क्योंकि) दीपक (के प्रकाश) के समान उनके (जीवों के) प्रदेशों का संकोच तथा विस्तार होता है ।
विवेचन - अवगाह शब्द के अर्थ हैं - स्थान-लाभ अथवा स्थान ग्रहण करना, या स्थान प्रदान करना । इसे साधारण भाषा में 'समा जाना' भी कहा जा सकता है । यह स्थान प्रदान करना लोकाकाश का कार्य है, अथवा यों भी कहा जा सकता है कि सभी द्रव्य (अस्तिकाय) लोकाकाश में स्थान ग्रहण करते हैं, अथवा लोकाकाश के आधार पर अवस्थित हैं ।
यह कथन व्यवहार नय की अपेक्षा है । तात्त्विक दृष्टि से तो सभी द्रव्य (अस्तिकाय) अपने में ही अधिष्ठित हैं ।
लोकाकाश का अभिप्राय - आकाश द्रव्य (अस्तिकाय) अनन्त है । किन्तु जहां तक जीव-धर्म-अधर्म-पुद्गल की सत्ता अथवा अवस्थिति होती है, वहां तक का आकाश लोकाकाश कहलाता है । उससे आगे का अनन्त आकाश अलोकाकाश कहा गया है ।
पुद्गल और जीव गतिमान द्रव्य (अस्तिकाय) हैं । उनमें स्वाभाविक गतिक्रिया है । वें अपना स्थान बदलते रहते हैं । किन्तु धर्म-अधर्म अस्तिकाय स्थित हैं, अवस्थित हैं, उनमें गतिक्रिया नहीं है, अतः लोक की मर्यादा का विभाग उन्हीं से होता है ।
इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि आकाश में जहां तक धर्म-अधर्म अस्तिकाय की अवस्थिति है, वहां तक लोकाकाश है और उससे आगे अलोकाकाश । इसीलिए सूत्रकार ने 'कृत्स्ने' शब्द दिया है । इसका अर्थ होता है ,व्याप्ति अथवा सम्पूर्णतः । अभिप्राय यह है धर्म-अधर्म अस्तिकाय की व्याप्ति सम्पूर्ण लोकाकाश में होती है ।
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