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२२८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र १२-१६ जायें और फिर कभी आकार मिल जायें । वे समुच्चय रूप से एक साथ ही रहते हैं, कभी अलग नहीं होते ।
यही स्थिति धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेशों की भी है । आगम वचन -
धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो । ... एस लोगुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि ॥ -उत्तरा २८/७
(जिसके अन्दर धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव रहते हों उसे सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान ने लोक कहा है । अर्थात् लोकाकाश में सब द्रव्य रहते हैं ।)
धम्माधम्मे य दो चेव लोगमित्ता वियाहिया । .. लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए ।। -उत्तरा. ३६/७
(धर्म और अधर्म नाम के दो द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । आंकाश लोक में है और इसके बाहर अलोक में भी है । व्यवहार काल समयक्षेत्र में है ।) एगपएसोगाढा संखिज्जपएसोगाढा....असंखिज्जपएसोगाढा ।
प्रज्ञापना, पद ५, अजीव पर्यवाधिकार (पुद्गलों के स्कन्ध (अपने-अपने परिमाण की अपेक्षा) आकाश के एक प्रदेश में भी हैं, संख्यात प्रदेशों में भी हैं और असंख्यात प्रदेशों को भी घेरे हुए हैं ।)
लोअस्स असंखेज्जइभागे । प्रज्ञापना, पद २, जीवस्थानाधिकार (जीवों का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग में होता है ।)
दीवं व... जीवेवि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदि णिवत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालयं वा।
- राजप्रश्नीय सूत्र, सूत्र ७४ (अपने पूर्वभव में बाँधे हुए कर्म के अनुसार प्राप्त किये हुए शरीर को जीव अपने असंख्यातप्रदेशों से दीपक के समान सचित्त (सजीव) कर लेता है । फिर चाहे वह शरीर छोटे से छोटा हो या बड़े से बड़ा हो ।) द्रव्यों का अवगाह -
लोकाकाशेऽवगाहः । १२। धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । १३।
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