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२२६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र ७-११
संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानां ।१०। नाणो : । ११। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं । एक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं । आकाश के अनन्त प्रदेश हैं । पुदगल के प्रदेश संख्यात और असंख्यात है। . अणु के प्रदेश नहीं होते ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र ७ से १० तक में द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या बताई गई है और सूत्र ११ में कहा गया है कि अणु के प्रदेश नहीं होते ।
. प्रदेश का अभिप्राय - प्रदेश का अभिप्राय उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश (part) से है, जिसका आगे कोई खंड या टुकड़ा हो ही न सके । इसे निरंश अंश अथवा अंश रहित अंश (partless part) भी कहा जाता है।
ऐसे अविभागी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोकाकाश और एक जीव में असंख्यात है और ये सब बराबर-बराबर हैं, न कम, न ज्यादा ।
अर्थात संख्या की दृष्टि से जितने प्रदेश एक जीव के हैं, उतने ही धर्मास्तिकाय के हैं, उतनेही अधर्मास्तिकाय के और उतने ही लोकाकाश के।
विशेष - द्रव्य स्थिति इस प्रकार की है कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश अवस्थित है तथा जिस समय केवली भगवान केवल-समुद्घात करते है और अपनी आत्मा को लोकव्यापी बनाते हैं, लोक-पूरण समुद्घात करते हैं, उस समय आत्मा का एक-एक प्रदेश भी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एक-एक प्रदेश पर अवस्थित हो जाता है। यह स्थिति तभी सम्भव है जब इन चारों द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या समान हो । इसीलिए आगमोक्त उद्धरण में 'तुल्ल' शब्द दिया है ।
__ सूत्र में पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात और असंख्यात बताये हैं किन्तु आगमोक्त उद्धरण में संख्यात, असंख्यात के साथ अनन्त भी कहे हैं । इसका कारण सूत्रकार की संक्षिप्त शैली है । वास्तव में तों अनन्तप्रदेशी और यहाँ तक कि अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध भी पुद्गल द्रव्य के होते हैं ।
इसका कारण यह है कि एक प्रदेश जितना स्थान घेरता है, उतने
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