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२२४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र ५-६
विवेचन
सूत्र १ में जो चार अजीवकाय- अस्तिकाय बताये हैं, इनमें से आकाश तक के अस्तिकाय एक - एक द्रव्य हैं । अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय यह तीनों एक-एक द्रव्य हैं । साथ ही यह तीनों निष्क्रिय भी हैं ।
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इससे यह स्पष्ट ही ज्ञात हो जाता है कि पुद्गल, जीव - ये दोनों अस्तिकाय - अनन्त है और क्रियावान है तथा काल द्रव्य भी अनन्त है यह बात उद्धृत उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा में कहीं गई है ।
एक - एक द्रव्य का अभिप्राय एक द्रव्य का अभिप्राय है अखण्डता, अविभाज्यता तथा समग्रता । यानि धर्म, अधर्म और आकाश यह तीनों द्रव्य का अखण्ड हैं, एक हैं, अविभाज्य और समग्र हैं । इन्हें अविभागी समग्र (Indivisible whole) कहा जा सकता है । यही एक - एक द्रव्य कहने का सूत्रकार का आशय है ।
निष्क्रियता का स्पष्टीकरण इन तीनों (धर्म, अधर्म और आकाश) को निष्क्रिय कहा गया है। निष्क्रियता यहाँ से परिणमनशून्यता नहीं समझनी चाहिए, परिणमन तो प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है, परिणमन के अभाव में द्रव्य का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है ।
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यहाँ निष्क्रियता का अर्थ है गतिशून्यता, गति का अभाव यानि यह द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाते । जहाँ है, वहीं स्थिर हैं, अवस्थित हैं, निश्चल हैं ।
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धर्म और अधर्म द्रव्य (अस्तिकाय - प्रदेशों का समुच्चय) का एक प्रमुख कार्य यह है कि यह दोनों लोक- अलोक की सीमा का निर्धारण करते हैं । अनन्त आकाश में जहाँ तक धर्म और अधर्म हैं वहाँ तक लोक है और उससे आगे अलोक है।
यदि यह निश्चल न हों तो लोक- अलोक की सीमा का निर्धारण कैसे कर सकते हैं ? सीमा रेखा (Boundry line) तो निश्चल ही होती है।
परिणमनक्रिया और गतिक्रिया का अन्तर एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है । जैसे आपका दिल है, वह धड़कता है । यह दिल की धड़कन (Heart-beating) परिणमन कही जा सकती है और रक्त जो धमनियों में बहता है, दौरा करता है, पूरे शरीर में चक्कर लगाता है, यह उसकी गतिक्रिया एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया है, शरीर के विभिन्न भागों में दौड़ लगाने की क्रिया है ।
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