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२२२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र २-३-४ भुविं च भुवइ अ भविस्सइ अ। धुवे नियए सासए अक्खए, अव्वए अवट्ठिए निच्चे, अरूवी ।
- नन्दी सूत्र, सूत्र ५८ यह असंभव है कि पाँच अस्तिकाय किसी समय में न थे, या नहीं होते या भविष्य में न होंगे । यह सदा थे, सदा रहते हैं और सदा रहेंगे । यह ध्रुव, निश्चत, सदा रहने वाले, कम न होने वाले, नष्ट न होने वाले, एक से रहने वाले, नित्य और अरूपी हैं।) मूल द्रव्य और इनका समन्वित लक्षण -
द्रव्याणि जीवाश्च । २। नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।३।
(सूत्र १ में कहे हुए धर्मादि चार अस्तिकाय) और जीव (यह पाँचों) द्रव्य हैं ।
(सूत्र १-२ में कहे हुए पाँचो द्रव्य) नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी
विवेचन - द्रव्य का लक्षण तो आगे इसी अध्याय के सूत्र २९ तथा ३७ के अन्तर्गत दिया गया है, किन्तु यहाँ सिर्फ इतना की कहा गया है, जो अजीवकाय. के अन्तर्गत चार अस्तिकाय गिनाये गये हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय -यह चारों तथा जीव- जीवास्तिकाय-यह पाँचों द्रव्य हैं । साथ ही नित्य हैं - सदा रहने वाले हैं । कभी नष्ट नहीं होते और अवस्थित रहते हैं, इनमें न्यूनाधिकता नहीं होती है । भूत-भविष्य और वर्तमान- तीनों कालों में इनकी सत्ता रहती है। आगम वचन -
पोग्गलत्थिकायं रूविकायं । - भगवती श. ७, उद्दे. १०
(पुद्गलास्तिकाय रूपी है ।) पुद्गल का रूपित्व -
रूपिण : पुदगला : । ४। पुद्गल रूपी है ।
विवेचन - 'रूपी' शब्द का विस्तृत अर्थ इसी अध्याय के सूत्र २३ में बताया गया है ।
वैसे रूपी का अर्थ होता है- मूर्त । मूर्त वह है जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हों ।
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