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अजीव तत्त्व वर्णन
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सकती हैं । इस तत्त्व (Element) के अभाव में मानव, पशु, पक्षी, आदि सभी की क्रियाए रुक जाएँगी, संसार जड़वत् स्थिर रह जायेगा । अतः संसार में जीव एवं पुदग्ल गति का परम सहायक तत्त्व 'धर्मास्तिकाय' माना गया है
।
अर्धाि
अधर्मास्तिकाय का कार्य धर्मास्तिकाय से विपरीत है । यह जीव पुद्गल को ठहरने में सहायता देता है । इसे fulcrum of rest कहा जाता है ।
यदि अधर्मास्तिकाय न हो तो एक बार गति में आई वस्तु कभी रुकेगी नहीं, सदा चलती रहेगी ।
अधर्मास्तिकाय भी ठहरने का उदासीन हेतु है, ठीक वृक्ष की छाया की तरह । वृक्ष पथिक को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता । किन्तु यदि पथिक विश्रान्ति लेना चाहे तो छाया उसकी सहायक होती है ।
आकाशास्तिकाय यह सभी द्रव्यों का अवकाश (स्थान - आश्रय) देता है । इसे अंग्रेजी में space कहा जाता है । पुद्गलास्त
यह रूप-रस-गन्ध-वर्ण वाला द्रव्य है । इसका स्वभाव ही पूरणगलन ( मिलना - बिछुड़ना) है । इसे अंग्रेजी में matter शब्द से कहा गया है ।
आगम वचन
प्रस्तुत चार अस्तिकायों में से भारत के अन्य दर्शनों ने धर्म और अधर्म को स्वीकार नही कियां । वैज्ञानिकों ने धर्मास्तिकाय को Ether के नाम से स्वीकार कर लिया है । वैसे इस रूप में धर्म-अधर्म की स्वीकार्यता जैन दर्शन की मौलिक विशेषता है ।
य ।
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द्रव्य ।
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कइविहाणं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- जीवदव्वा य अजीवदव्वा अनुयगोद्वार, सूत्र १४१
( भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के होते हैं ? गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के होते हैं
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भविस्सइ ।
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पंचत्थिकाएं न कयावि नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ
(१) जीव द्रव्य (२) अजीव
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