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________________ अजीव तत्त्व वर्णन २२१ सकती हैं । इस तत्त्व (Element) के अभाव में मानव, पशु, पक्षी, आदि सभी की क्रियाए रुक जाएँगी, संसार जड़वत् स्थिर रह जायेगा । अतः संसार में जीव एवं पुदग्ल गति का परम सहायक तत्त्व 'धर्मास्तिकाय' माना गया है । अर्धाि अधर्मास्तिकाय का कार्य धर्मास्तिकाय से विपरीत है । यह जीव पुद्गल को ठहरने में सहायता देता है । इसे fulcrum of rest कहा जाता है । यदि अधर्मास्तिकाय न हो तो एक बार गति में आई वस्तु कभी रुकेगी नहीं, सदा चलती रहेगी । अधर्मास्तिकाय भी ठहरने का उदासीन हेतु है, ठीक वृक्ष की छाया की तरह । वृक्ष पथिक को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता । किन्तु यदि पथिक विश्रान्ति लेना चाहे तो छाया उसकी सहायक होती है । आकाशास्तिकाय यह सभी द्रव्यों का अवकाश (स्थान - आश्रय) देता है । इसे अंग्रेजी में space कहा जाता है । पुद्गलास्त यह रूप-रस-गन्ध-वर्ण वाला द्रव्य है । इसका स्वभाव ही पूरणगलन ( मिलना - बिछुड़ना) है । इसे अंग्रेजी में matter शब्द से कहा गया है । आगम वचन प्रस्तुत चार अस्तिकायों में से भारत के अन्य दर्शनों ने धर्म और अधर्म को स्वीकार नही कियां । वैज्ञानिकों ने धर्मास्तिकाय को Ether के नाम से स्वीकार कर लिया है । वैसे इस रूप में धर्म-अधर्म की स्वीकार्यता जैन दर्शन की मौलिक विशेषता है । य । - द्रव्य । - कइविहाणं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- जीवदव्वा य अजीवदव्वा अनुयगोद्वार, सूत्र १४१ ( भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के होते हैं ? गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के होते हैं - भविस्सइ । Jain Education International - पंचत्थिकाएं न कयावि नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ (१) जीव द्रव्य (२) अजीव For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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