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२२० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र १
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अजीवकाय के चार भेद बताये गये हैं ।
अजीवकाय का अभिप्राय - अजीव और अजीवकायं के अभिप्राय में अन्तर हैं । इसमें काय शब्द विशेष हैं । कायशब्द की निरुक्ति इस प्रकार है - चीयते इति काय : |
इस निरुक्ति के अनुसार काय से शरीरावयवी का ग्रहण होता है ।
काय का अर्थ है - बहुत से प्रदेश । यानी जिन द्रव्यों में बहुत से प्रदेश हों, वे अस्तिकाय कहलाते हैं । .
यहां 'अस्ति' शब्द क्रिया नहीं; 'अव्यव' हैं । इसका अभिप्राय हैं सत्ता या सद्भावत्व । अस्तिकाय का अर्थ है वे द्रव्य जो अस्तित्त्ववान है और साथ ही बहुप्रदेशी भी हैं ।
धर्म, अधर्म, आकाश और पुदगल ऐसे ही द्रव्य हैं, जो अस्तिकाय भी
यद्यपि अजीव द्रव्य पांच है- धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल और काल। किन्तु काल बहुप्रदेशी नहीं, एक प्रदेशी है । कालाणु रत्नराशि के समान बिखरे -अलग अलग रहते हैं; इसीलिए काल को अस्तिकाय नहीं माना जाता है और यही कारण है कि सूत्रकार ने चार अजीवकाय ही गिनाये है ।
धर्म का अभिप्राय - प्रस्तुत संदर्भ में धर्मास्तिकाय का विशेष अर्थ है । यह वह धर्म नहीं है, जिसे हम प्रतिदिन धर्म संज्ञा से अभिहित करते हैं । यह न श्रुतधर्म है, न चारित्रधर्म ।
धर्म का अभिप्राय है - जीव और पुद्गल को गमन में सहायता देने वाला द्रव्य (fulcrum of motion) | यह उदासीन सहायक है, जीव और पुदगल को गति करने के लिए प्रेरित नहीं करता । यही उसी तरह है जैसे मछली के लिए जल । जल मछली को चलने के लिए प्रेरित नहीं करता; लेकिन यदि मछली गमन करना चाहती है तो यह सहायक अवश्य होता है । साथ ही यह भी तथ्य है कि धर्मद्रव्य की सहायता के अभाव में जीव और पुद्गल भी गति नहीं कर सकते ।
इसे अंग्रेजी में (Ether) नाम से कहा गया है । वैज्ञानिक (Ether) की सत्ता स्वीकार करते हैं । उनका मानना है कि बिना इस द्रव्य (Ether) की सहायता के न तरंगें चल सकती हैं, न ध्वनि के परमाणु गमन कर सकते हैं और न विद्युत तरंगें, न लैसर किरणें आदि गति (movement) कर
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