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जीव-विचारणा ९७ फिर वृक्ष की गति सभी दिशाओं में होती है, वह जड़ के रूप में नीचे की ओर बढ़ता है, तने के रूप में ऊपर की ओर और शाखाओं, टहनियों आदि के रूप में आठों तिर्यक् दिशाओं में गति करता हैं, बढ़ता है अपना आकार-प्रकार फैलाता है ।
सुख-दुःख-भय आदि की स्पष्ट अभिव्यक्ति लाजवन्ती तथा छुई-मुई के पौधों में देखी जाती है । मानव की छाया मात्र से यह पौधे संकुचित हो जाते हैं; भय के कारण सिकुड़ जाते हैं, यह भी गति हैं ।
सूरजमुखी (daffodil) का पुष्प सूर्य की गति के अनुसार दिशा बदलता रहता है । प्रातःकाल पूर्वाभिमुख होता है तो सायंकाल पश्चिमाभिमुख पश्चिमाभिमुख हो जाता है ।
कमलिनी आदि के ऐसे ही अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं । इसी प्रकार वायु के सम्बन्ध में भी बहुत से उदाहरण हैं ।।
इस तथ्य को तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणी भी भली-भाँति जानते थे, इसी कारण उन्होंने इस सूत्रों की टीका में कहा
'अतः क्रियां प्राप्य तेजोवाय्योस्त्रसत्वं ... लब्ध्या पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावरा एव ।
. क्रिया-गतिशीलता के कारण तेज और वायु को त्रस कहा जाता है किन्तु लब्धि के अनुसार स्थावरनामकर्म के उदय से पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु और वनस्पतिकायिक - यह सभी स्थावर ही हैं ।
इसीलिए तेजस् और वायुकायिक जीवों को गति त्रस कहा गया है । दूसरे शब्दों में यह दोनों प्रकार के जीव उपचार मात्र से (गति की अपेक्षा) त्रस माने गये हैं । ..
स्थावरकाय के पाँचों भेदों में जो पृथिवीकायिक शब्द हैं उसमें काय का अभिप्राय यह है कि जिन जीवों का औदारिक शरीर ही पृथ्वी है, वे पृथिवीकायिक हैं । इसी प्रकार अन्य चारों स्थावर जीवों में बारे में भी समझ लेना चाहिए ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पृथिवी, जल, आदि के आश्रय में रहने वाले जीव पृथिवीकायिक अथवा जलकायिक जीव आदि नहीं हैं, वे तो स्पष्ट ही त्रसकायिक है ।
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