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जीव-विचारणा १२३ (नारकियों के दो शरीर कहे गये हैं - (१) आभ्यन्तर और (२) बाह्य आभ्यंतर शरीर कार्मण होता है और बाह्य शरीर वैक्रिय । इसी प्रकार देवों के भी होता है ।) वैउव्वियलद्धीए ।
औपपातिक, सूत्र ४० (वैक्रिय शरीर लब्धि द्वारा भी प्राप्त होता है ।)
तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्त विउल तेउलेस्से भवति, तं जहा -
(१) आयावणताते ९२) खंतिखमाते (३) अपाणगेणं तवोकम्मेणं।
(तीन स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ संक्षेप की हुई अधिक तेजोलेश्या वाले होते हैं - (१) धूप में तपने से (२) शांति और क्षमा से तथा (३) बिना जल पिये हुए तपस्या करने से । वैक्रिय शरीर की उपलब्धि -
वैक्रि यमौपपातिकम् ।४७। लब्धिप्रत्ययं च । ४८। , उपपात जन्म वालों के वैक्रिय शरीर होता है । यह लब्धि (ऋद्धिविशेष) से भी प्राप्त होता है ।
विवेचन - (उपपात जन्म सिर्फ देवों और नारकियों का ही होता है) अतः उनके वैक्रियशरीर औपपातिक (भव-सापेक्ष) होता है । किन्तु वैक्रिय शरीर लब्धि से भी प्राप्त हो सकता है ।
लब्धि एक तपोजन्य शक्ति है कुछ तपस्वी, साधु आदि भी तपस्या द्वारा वैक्रिय लब्धि की प्राप्ति कर लेते हैं और इस लब्धि का प्रयोग करके वैक्रिय शरीर भी बना सकते हैं । किन्तु यह मनुष्यों में ही सम्भव है, क्योंकि वे ही तपस्या कर सकते हैं ।
मनुष्यों के अतिरिक्त सिर्फ बादर वायुकायिक तिर्यंच जीवों में भी वैक्रिय लब्धि मानी गई हैं । किन्तु गोम्मटसार जीवकांड, गाथा २३२ में तैजस्कायिक जीवों में भी वैक्रिय लब्धि स्वीकार की है । किन्तु यह तपोजन्य नहीं स्वाभाविक
इनके अतिरिक्त भोगभूमि में उत्पन्न होने वालों के तथा कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, वासुदेवों आदि में भी वैक्रिय लब्धि होती है और वह भी गृहस्थाश्रम में । .
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