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१६८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र ७ आगम वचन - भवणवइवाणमंतर..चत्तारि लेस्साओ । .
- स्थानांग, स्थान १, सूत्र ५१ (भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों के चार लेश्याएँ होती हैं।) भवनवासी और व्यंतर देवों की लेश्याएँ ।
पीतान्तलेश्या : ७।
पहले दो देवनिकायों- भवनवासी और व्यंतरदेवों के पीत लेश्या तकलेश्या होती हैं ।
विवेचन - लेश्याएँ ६ हैं । इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं (१) कृष्ण लेश्या (२) नीललेश्या (३) कापोतलेश्या (४) पीत अथवा तेजोलेश्या (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ल लेश्या ।
इन लेश्याओं के दो भेद हैं - भाव लेश्या और द्रव्य लेश्या ।
भावलेश्या तो आत्मा के योग और कषाय रंजित भावों को कहा जाता है और द्रव्यलेश्या शरीर का वर्ण आदि हैं ।
___ भवनवासी और व्यंतर देवों में छहों भावलेश्या संभव हैं, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में द्रव्यलेश्या अपेक्षित हैं । इन देवों में चार द्रव्यलेश्या ही संभव हैं - कृष्ण, नील, कापोत और तेजस् ।
इसका अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि इन देवों का जो वैक्रिय शरीर हैं, वह इन चार प्रकार के वर्णो अथवा इनके सम्मिलित वर्ण का होगा । शंख के समान श्वेत वर्ण का नहीं ।
वैक्रिय शरीर (जिसे अंग्रेजी में Electric body कहा जाता है) वैज्ञानिक प्रयासों द्वारा देखा गया है कि कुत्सित भाव वालों का यह शरीर श्यामवर्णी होता है तथा ज्यों-ज्यों शुभभाव बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों शरीर का रंग भी पीलेपन की ओर बढ़ता जाता है ।
अतः सहज ही यह समझा जा सकता है कि भवनवासी और व्यंतर देवों के भाव इतने विशुद्ध नहीं होते हैं कि उनके वैक्रिय शरीर का वर्णशुक्ललेश्यारूप दूध के फेनके समान सफेद दिखाई दे । आगम वचन -
कतिविहा णं भंते ! परियारणा पण्णत्ता ?
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