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१८४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १३-१६
अर्थात सौर वर्ष से चांद्र वर्ष १० दिन कम होते है।
विशेष - इस अन्तर को ३ वर्ष में एक पुरुषोत्तम मास (मल मास .या लौंध मास Leap year) मान कर पूरा कर लिया जाता है और सौर तथा चान्द्र वर्ष का सामंजस्य बिठा लिया जाता है ।
चन्द्रमा की धीमी गति होने के परिणामस्वरूप ही चन्द्रोदय आगे पीछे होता है । यानी शुक्ल पक्ष की एकम की अपेक्षा द्वितीया का चन्द्र विलम्ब से उदित होता है तथा इसी तरह आगे की तिथियों में भी ।।
कालविभाग- जैसा कि सूत्र १५ में कहा गया है- ज्योतिष्क देवों (सूर्य-चन्द्र) के चार (परिभ्रमण) से काल का विभाग होता है। काल विभाग से यहां अभिप्राय है- मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि । आधुनिक शब्दावली में सैकण्ड, मिनट, घण्टा, दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष आदि ।
किन्तु आगमों में ऐसे काल को व्यवहार काल कहा है । व्यवहार काल अभिप्राय है, जिससे मुहूर्त, प्रातः, सन्ध्या आदि का व्यवहार हो, दिन-रात, वर्ष आदि का व्यवहार किया जाये ।
इसी अपेक्षा से काल के दो विभाग किये गये हैं - १. प्रदेशनिष्पन्न और २. विभागनिष्पन्न ।
प्रदेशनिष्पन्न काल एक समय से लेकर असंख्यात समय तक का असंख्यात प्रकार का है ।
विभागनिष्पन्न काल अनेक प्रकार का है - १. समय, २. आवलिका, ३. मुहूर्त, ४. अहोरात्र, ५. पक्ष, ६. मास, ७. ऋतु, ८. अयन, ९. संवत्सर (वर्ष), १०. युग, ११. पूर्वांग इत्यादि ।
काल-विभाग निष्पन्न व्यवहार काल की तालिका असंख्यात समय = १ आवलिका संख्यात आवलिका = निःश्वास या १ उच्छ्वास
१ उच्छ्वास ) + १ निश्वास )
= १ प्राण ७ प्राण
= १ स्तोक ७ स्तोक
= १ लव ७७ लव
= १ मुहूर्त ३७७३ उच्छवास = 9 मुहूर्व 1५८ मिनट)
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