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ऊर्ध्वलोक-देवनिकाय १९३ (सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, अधोग्रैवेयक, मध्यमग्रैवेयक, उपरिमग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सवार्थसिद्ध के देव (वैमानिक देव) कहलाते हैं । वैमानिक देव -
वैमानिकाः । १७। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ।१८। उपर्युपरि ।१९। 'सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्र सहस्त्रारेज्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु गैवेयके षु विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धेच । २०। विमानों में रहने वाले देव वैमानिक हैं । यह कल्पोंपपन्न और कल्पातीत दो प्रकार के हैं । यह (विमान एवं वैमानिक देव) ऊपर-ऊपर हैं ।
सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्त्रार, आणत, प्राणत, आरण, अच्युत (यह १२ कल्प-स्वर्ग) तथा ९ ग्रैवेयक और (५ अनुत्तरविमान) विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सवार्थसिद्ध इनमें वे (वैमानिक देव) निवास करते हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र १७ से २० तक में वैमानिक देवों के निवास के विषय में बताया गया है ।
यद्यपि अन्य निकायों के देवों के भी विमान होते हैं; किन्तु वैमानिकदेवों के विमानों की यह विशेषता है कि वे अतिशय पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त हो पाते हैं, उनमें निवास करने वाले देव भी विशेष पुण्यवान होते हैं ।
१. दिगम्बर परम्परा में १६ कल्प (स्वर्ग) माने गये हैं । वहाँ ब्रह्मलोक के बाद ब्रह्मोत्तर, लान्तक के बाद कापिठ और शुक्र तथा महाशुक्र के बाद शतार स्वर्ग और माने गये है । इसलिये वहाँ ब्रह्मोत्तर छठा, कापिष्ठ आठवां; और शुक्र नवां तथा शतार ग्यारहवां कल्प है ।
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