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१९६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १७ - २०
पांच अनुत्तर विमान नवग्रैवेयक से असंख्यात योजन ( १ राजू ) ऊपर जाने पर पाँच अनुत्तर विमान हैं । इनके नाम हैं 19 विजय २. वैजयन्त ३. जयन्त, ४. अपराजित ५. सवार्थसिद्ध ।
पूर्व दिशा में विजय, दक्षिण में वैजयन्त, पश्चिम में जयन्त और उत्तर में अपराजित तथा सबके मध्य में सवार्थसिद्ध विमान अवस्थित हैं । सवार्थसिद्ध विमान १ लाख योजन का है ।
ये सब मिलकर ८४,९७,०२३ विमान हुए ।
सवार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर सिद्धशिला है । यह ४५ लाख योजन लम्बी-चौड़ी, व गोल, मध्य में ८ योजन और फिर पतली होती हुई दोनों किनारों पर मक्खी के पंख के समान पतली है । सिद्धशिला से और ऊपर सिद्ध आत्मा शाश्वत सुख में विराजमान रहते हैं ।
सिद्धशिला की परिधि १,४२,३०, २४९ योजन, १ कोस, १७६६, धनुष ५ III ( पौने छह ) अंगुल है । इसका वर्ण शुद्ध स्वर्ण से भी उज्ज्वल, गोक्षीर, शंख, चन्द्र, रत्न, चांदी से भी अधिक उज्ज्वल है ।
किल्विषिक देव यद्यपि ये देव विमानों के बाहर ( बाह्य भाग में) अन्त्यजों के समान रहते हैं, किन्तु फिर भी इनकी गणना वैमानिक देवों के साथ की जाती है । इसलिये इनका थोडा परिचय दिया जा रहा है । किल्विषक देव तीन प्रकार के हैं
प्रथम प्रकार के किल्विषिक देव और पहले दूसरे स्वर्गलोक के नीचे रहते हैं । इनकी आयु तीन पल्य की होती है ।
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दूसरी प्रकार के किल्विषिकं देव पहले दूसरे स्वर्ग के ऊपर और तीसरे चौथे स्वर्ग के नीचे के भाग में रहते हैं । इनकी आयु तीन सागर की
होती है ।
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तीसरी प्रकार के किल्विषिक देव ज्योतिषी देवो के उपर पांचवें स्वर्ग के ऊपर और छठे स्वर्ग के नीचे रहते हैं । इनकी आयु १३ सागर की होती है ।
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त्यागी-तपस्वी होकर जो गुरु के विरोधी, निन्दक तथा वीतरागवाणी के उत्थापक होते हैं, वे जीव किल्विषिक देव बनते हैं ।
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देवों के कुल द १० भवनपति, १५ परमाधार्मिक, १६ व्यंतर, १० जृम्भक, १० ज्योतिष्क (५ चर और ५ अचर), १२ कल्पोपपन्न, ९ नव ग्रैवेयक, ५ अनुत्तर विमानवासी, ९ लोकान्तिक और ३ किल्विषिक - यह ९९
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