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ऊर्ध्व लोक - देवनिकाय
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उनको जीताचार कहा जाता है । इन परम्पराओं का पालन सभी देव स्वेच्छा तथा हँसी-खुशी से करते हैं ।
तीर्थंकर भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य, विर्माण कल्याणक के समय आना, उत्सव मनाना आदि देवों का जीताचार है ।
(४) उपपात उपपात का अर्थ उत्पन्न होना है । देवों के जन्म लेने को उपपात कहा जाता है। यहाँ संक्षेप में यह जान लेना उपयोगी है कि कौन-सा जीव किस स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है ।
सम्यग्दृष्टि निर्ग्रन्थ (साधु) सर्वार्थसिद्धपर्यन्त उत्पन्न हो सकते है । चौदहपूर्वधर संयमी मुनि पाँचवें देवलोक से नीचे के स्वर्गों में उत्पन्न नहीं होते, वे ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक उत्पन्न होते हैं. जैनलिगं को धारण करने वाले (अन्तरंग से मिथ्यादृष्टि) साधु मरकर नवग्रैवेयक तक में जन्म ग्रहण कर सकते हैं, इससे ऊपर नहीं । अन्यलिंगी मिथ्यादृष्टि साधु अधिक से अधिक अच्युत स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं ।
(५) अनुभाव इसे दूसरे शब्दों में लोकस्थिति कहा जा सकता । परिणमन अथवा कार्य विशेष में प्रवृत्ति को अनुभाव कहा गया है । सामान्यतः यह शंका की जाती है कि देवलोक (स्वर्ग) (और इसी प्रकार नरक भी ) ( प्राचीन पौराणिक मान्यता के अनुसार पृथ्वी भी) निराधार ( आधार रहित) कैसे टिकी हुई है ? वहाँ देवगण कैसे निवास करते हैं, तथा वहाँ उनके रत्नमय विमान कैसे टिके हुए हैं ?
इन समस्याओं का शास्त्रीय समाधान यह है कि लोकस्थिति ही इस प्रकार की है, अनादि काल से ऐसा ही है और अनन्तकाल तक ऐसा ही रहेगा । इसे प्राकृतिक नियम कह सकते हैं ।
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इसी स्थिति को शास्त्रों में लोकानुभाव, लोकस्वभाव, जगद्धर्म, अनादि परिणाम सन्तति आदि नामों से कहा गया है ।
आगम वचन
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सोहम्मीसाणदेवाण कति लेस्साओ पन्नत्ताओ ?
गोयमा ! एगा तेऊलेस्सा पण्णत्ता । सणकुमार माहिंदेसु एगा पहले स्सा एवं बंभलोह वि पम्हा । सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा अणुत्तरोववातियाणं. एक्का परमसुक्कलेस्सा ।
वाभिगम, प्रतिपत्ति ३ उ. १, सू. २१४;
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प्रज्ञापना, पद १७, लेश्याधिकार
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