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ऊर्ध्वलोक-देवनिकाय १७७ अन्य ग्रन्थों में इनके २६ भेद बताये हैं, जिनमें से १६ तो व्यंतरदेव है और १० प्रकार के जम्भृक देव हैं ।
१६ व्यंतरदेवों में ८ तो वही है किन्नर, किंपुरुष आदि जो सूत्र में गिनाये गये हैं और शेष यह हैं -
९. आणपन्नी, १०. पाणपन्नी, ११. इसीवाई, १२. भूइवाई, १३. कंदीय, १४. महाकंदीय, १५. कोहंड और १६. पयंग ।
जृम्भक देव हैं -
१. आणजृम्भक २, पाणजृम्भक, ३. लयनजृम्भक, ४. शयनजृम्भक, ५. वस्त्रजृम्भक, ६. पुष्पजृम्भक, ७. फलजृम्भक, ८. पुष्पफलजृम्भक, ९. विद्याजृम्भक और १०. अव्यक्तजृम्भक ।
यह दस जाति के जृम्भक देव प्रातः सायं. मध्यान्ह और मध्यरात्रि इन चार संध्याओं में पृथ्वी तल पर अदृश्य रूप से विचरण करते हैं और अपने जीताचार के अनुसार 'हुज्जा -हुज्जा ' शब्द का उच्चारण करते हैं । हुज्जा - हुज्जा का अर्थ हैं - ऐसा ही हो, ऐसा ही हो ।
इस जीताचार से यह देव मानव को सावधान करते है कि कभी भी अशोभनीय शब्दों का उच्चारण न करे, किसी को कटु शब्द न कहे, स्वयं भी शोक-ताप-आक्रन्दन न करे, अन्यथा इसका दुष्परिणाम भयंकर रूप में सामने आयेगा ।
भवनवासी और व्यंतरदेवों के इस विस्तृत विवेचन-परिचय से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि असुरकुमार तथा भूत-पिशाच आदि के बारे में जो उनकी बीभत्सता, भयंकरता, क्रूरता आदि रूप वृत्तियों की धारणा जनमानस में बैठी है, वह निर्मूल है । .
असुर .आदि भवनवासी और भूत आदि व्यंतरदेव देवत्व अथवा शुभवृत्तियों के विरोधी नहीं हैं और न यह देवों के विरोधी हैं । यह मानव को अकारण दुखी भी नहीं करते ।
भूतों आदि के बारे में जो विपरीत भ्रान्त धारणाएँ फैली हुई हैं, उनका इस वर्णन से निराकरण हो जाता है । साथ ही यह भी भली भाँति हृदयंगम हो जाना चाहिए कि जैनधर्मदर्शन के अनुसार इन देवों का कैसा स्वरूप है, वृत्ति-प्रवृत्ति है ।
यही इस समस्त वर्णन का अभिप्रेत है।
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