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१८० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १३-१६ आगम वचन -
जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाचंदा सूरा गहा नक्खत्ता तारा । प्रज्ञापना, पद १, देवाधिकार
(ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के होते हैं - (१) चन्द्र (२) सूर्य (३) ग्रह (४) नक्षत्र और (५) तारे )।
ते मेरु परियडता पयाहिणावत्तमंडला सव्वे । अणवट्टियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ .
- जीवाभिगम, तृतीय प्रतिपत्ति, उ. २, सूत्र १७७ (वह चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहों के समूह स्थिर न रहते हुए नित्यमण्डलाकार में मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा दिया करते हैं ।) . से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ- 'सूरे आइचे सूरे' ?
गोयमा ! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव अस्सप्पिणीइ वा अवस्सप्पिणीइ वा से तेणठेणं जाव आइच्चे।
-भगवती, श. १२, उ. ६ ( भगवन् ! सूर्य को आदित्य किस कारण से कहते हैं ?
गौतम ! आवलिका आदि से लगाकर उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी तक के समय की आदि सूर्य से ही होती है, इस कारण से उसे आदित्य कहते
से किं तं पमाणकाले ? दुविहे पण्णत्ते तं जहादिवप्पमाणकाले राइप्पमाणकाले । इचाइ ।
भगवती, श. ११, उ. ११, सूत्र ४२४
__- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति प्रमाणकाल किसे कहते हैं ?
वह दो प्रकार का होता है - (१) दिवसप्रमाण काल और (२) रात्रि प्रमाणकाल.. इत्यादि.. '
(विशेष-मनुष्य क्षेत्र के अन्दर उत्पन्न हुए पाँचो प्रकार के ज्योतिष्क चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों के समूह चलते रहते हैं । किन्तु मनुष्य क्षेत्र के बाहर के शेष चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे गति नहीं करते हैं, चलते नहीं है । उनके निश्चल समझना चाहिए ।
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