________________
'१२४ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ४७-४८
सार यह है कि देव और नारको को तो वैक्रियशरीर जन्म से ही प्राप्त होता है किन्तु मनुष्यों और तिर्यंचो को तज्जन्य (वैक्रियशरीर नाम कर्म के क्षयोपशम) से तथा तपस्या से भी प्राप्त हो सकता है ।
यहाँ दिगम्बर परम्परा के सूत्र में 'तैजसमपि' यह पाठ मूल सूत्र में रखा है और भाष्य में यह पाठ 'तैजसमपि शरीरं लब्धिप्रत्ययं भवति' स्वोपज्ञ भाष्य के अन्तर्गत दिया है । अर्थ दोनों का एक ही है कि तैजस् शरीर लब्धि से भी होता है ।' साथ ही उद्धृत आगम पाठ में भी तैजस् की प्राप्ति की प्रक्रिया भी बताई गई है ।
आगम उद्धृत पाठ में 'संखित्तविउलतेउलेस्से' यह शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है । इसका साररूप में अभिप्राय यह है, कि प्रत्येक मनुष्य को जो तैजस् शरीर प्राप्त होता है, उसे तपस्या की विशिष्ट साधना से 'विपुल' कर लिया जाता है, यही तेजोलेश्या है ।
यह तेजोलेश्या इतनी विपुल भी होती है कि १६ १/२.(साढ़े सोलह) देशों को जलाकर भस्म कर दे । जैसी गोशालक को प्राप्त थी ।
सती आदि के प्रसंग में, कि अपने आप ही चिता में आग लग जाती है, तथा पश्चिमी देशों में हुई अनेक घटनाओं से भी तेजस्शरीर की तीव्र राग, द्वेष, मोह आदि कषायों से उद्दीप्त-ज्वलनशील अभिव्यक्ति स्पष्ट देखी जाती
हाँ, यह अवश्य है कि यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। जैसाकि आगम वचन से द्योतित होता है, शीतलेश्या भी इसी का एक रूप है और यह(शांति तथा क्षमा से प्राप्त होती है । गोशालक की रक्षा के लिए भगवान ने शीत तेजोलेश्या छोड़ी थी ।
___ अतः इतना निश्चित है कि वैक्रियशरीर की भाँति तैजस् शरीर भी लब्धि . द्वारा मनुष्य प्राप्त कर सकते हैं । आगम वचन -
आहारगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? .
गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते ... पमत्तसंजयसम्मदिट्ठि.. समचउरंस संठाणसंठिए पण्णत्ते ।
- प्रज्ञापना पद २१, सूत्र २७३ (भगवन ! आहारक शरीर कितने प्रकार का होता है ?
गौतम ! आहारक शरीर का एक ही आकार होता है यह प्रमत्त-संयत सम्यग्दृष्टि के ही होता है तथा इसका समचतुरस्त्र संस्थान होता है।)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org